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यह आकाश सबको बुलाता
दूर से ही सबको लुभाता
अपने में बहुत कुछ समेटे
आकर्षित खुद ही बन जाता ।
यह आकाश सबको बुलाता ।
बादलों में कभी छुप जाता
रंग बदलता ,मेघ बरसाता
चाँद सितारों के संग रहता
धरा को अपनी छाँव देता
कभी इठलाता कभी बिखरता
यह आकाश सबको बुलाता
इंद्रधनुष की चादर ओढ़े
जब कभी भी है यह आता
कहीं कोई तराना है गाता
करता है अठखेलियां बहुत
कभी आग यह बरसाता ।
ख्वाबों को सजाता
आकाश अपना हो जाता ।

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on December 18, 2016 at 10:33pm
धन्यवाद आदरणीय महेंद्र जी ।
Comment by Mahendra Kumar on December 18, 2016 at 10:52am
आदरणीया कल्पना जी, अच्छी कविता लिखी है आपने। हार्दिक बधाई। सादर।
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on December 18, 2016 at 8:13am
धन्यवाद आदरणीय समर साहब ।
Comment by Samar kabeer on December 17, 2016 at 5:28pm
मोहतरमा कल्पना भट्ट साहिबा आदाब,बहुत सुंदर कविता लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर दिल से बधाई स्वीकार करें ।तो

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