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कोई प्रेम-कथा उतरी है (ग़ज़ल) - मिथिलेश वामनकर

2122 – 1122 – 1122  - 22

 

केश विन्यास की मुखड़े पे घटा उतरी है  

या कि आकाश से व्याकुल सी निशा उतरी है

 

इस तरह आज वो आई मेरे आलिंगन में

जैसे सपनों से कोई प्रेम-कथा उतरी है

 

ऐसे उतरो मेरे कोमल से हृदय में प्रियतम

जैसे कविता की सुहानी सी कला उतरी है

 

मेरे विश्वास के हर घाव की संबल जैसे   

तेरे नयनों से जो पीड़ा की दवा उतरी है

 

पीर ने बुद्धि को कुंदन-सा तपाया होगा

तब कहीं जाके हृदय में भी दया उतरी है

 

पाप से आप जो दिन रात नहाये होंगे

इसलिए विष से भरी प्रेम-सुधा उतरी है

        

आज फिर से किसी शासक ने ठहाका मारा

आज फिर से किसी निर्धन की त्वचा उतरी है

 

आजकल पक्ष व प्रतिपक्ष में हैं घर आँगन

घर में दिल्ली की ही विषयुक्त हवा उतरी है

 

घर प्रकाशित करो दीपक से, ये आशा छोड़ो

चाँदनी यूं कभी अम्बर से भला उतरी है

 

फिर कहीं पर कई शम्बूक के वध निश्चित हैं 

फिर कहीं अग्नि में ‘मिथिलेश’  सुता उतरी है

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment

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Comment by vijay nikore on January 7, 2017 at 11:29am

इतनी खूबसूरत गज़ल पढ़ने को बहुत कम मिलती है। बहुत ही कसी हुई प्रस्तुति के लिए बधाई।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 28, 2016 at 2:04pm

आदरणीय डॉ. आशुतोष जी, इस प्रयास की सराहना व उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद. आपके लिए भी नव वर्ष मंगलमय हो. सादर 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on December 28, 2016 at 1:23pm

आदरणीय मिथिलेश इस शानदार ग़ज़ल पर हार्दिक बधायी और एक बार फिर से नव बर्ष की ढेर सारी शुभकामनाओं के साथ 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 28, 2016 at 11:39am
आदरणीय सुरेंद्र जी, इस प्रयास की सराहना व उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद.
Comment by नाथ सोनांचली on December 28, 2016 at 9:36am
इस तरह आज वो आई मेरे आलिंगन में
जैसे सपनों से कोई प्रेम-कथा उतरी है

वाह वाह वाह वाह, आदरणीय मिथिलेश जी सादर अभिवादन, बहुत उम्दा गजल
दाद हाजिर है, सादर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 27, 2016 at 9:16pm

आदरणीय बासुदेव अग्रवाल 'नमन' जी, इस प्रयास की सराहना व उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद.

Comment by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on December 27, 2016 at 7:10pm
वाह आ0 मिथीलेशजी बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल हुई है।

फिर कहीं पर कई शम्बूक के वध निश्चित हैं
फिर कहीं अग्नि में ‘मिथिलेश’ सुता उतरी है
वाह कितने सुंदर तरीके से नाम को पिरोया है।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 27, 2016 at 5:04pm

आदरणीय तेजवीर सिंह जी, इस प्रयास की सराहना व उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद.

Comment by TEJ VEER SINGH on December 27, 2016 at 2:39pm

हार्दिक बधाई आदरणीय मिथिलेश जी। बेहतरीन गज़ल।

आज फिर से किसी शासक ने ठहाका मारा

आज फिर से किसी निर्धन की त्वचा उतरी है|


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 27, 2016 at 12:00pm

आदरणीय डॉ. विजय शंकर सर, आपको यह प्रयास पसंद आया, जानकार आश्वस्त हूँ.  इस प्रयास की सराहना व उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद.

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