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रे मन कह दे
अपनी बात आज
बंद है जो भीतर
बाहर आने दे आज
देख, पवन पुरावई
शीत लहर आई
कह दे अपनी बात
जिसे जड़ कर चुकी हो
देख बाहर प्रवासियों को
घर अपना जो छोड़ आये है
कुछ दिनों के लिये ही सही
नया बसेरा बसाने आये है
आज खोल दे द्वार अपने भी
उड़ जाने दे अपनी पीड़ा को
लग जाने दे पंख परिंदों की तरह
खुली साँसे ले लेने दे ।


मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Samar kabeer on January 23, 2017 at 3:16pm
5वीं और 9वी पंक्ति में भी 'देखो', को "देख"करना था न ?
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on January 23, 2017 at 11:23am
आदाब जनाब समर साहब । पहले मैंने दे ही लिखा था फिर थोडी कन्फ्यूज़ हो गयी थी । धन्यवाद आदरणीय । अब देखिएगा सर । सादर ।
Comment by Samar kabeer on January 22, 2017 at 2:01pm
मोहतरमा कल्पना भट्ट साहिबा आदाब,अच्छी लगी आपकी कविता,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
'मन'चूँकि एक वचन है इसलिये 'ओ मन कह दे'कहना उचित होगा,और कविता में जहां जहां 'दो'शब्द आये हैं उन्हें 'दे' कर लीजियेगा ।

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