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कब्र जान-ए- आदमी है लिखो पंकज यह घर है- ग़ज़ल

2122 2122 2122 2122
ये भला कैसा प्रहर है, दूर मुझ से हमसफर है
नाम उसका ही जपे मन, खुद से लेकिन बेखबर है

मन्द सी मुस्कान ले कर, नूर बिखराया है किसने
आईने में खुद नहीं मैं, इश्क़ का कैसा असर है

इक दफ़ा ही तो मिलीं थीं, पर खुमारी अब भी बाकी
उम्र भर मदहोश रहना, यूँ नशीली वो नज़र है

सर्द अहसासों का मौसम, तो है पतझड़ बाग़ में
उफ़्फ़, ख्वाबों के झरे पत्ते घिरा बेबस शजर है

कंकरीटों की दीवारों बीच रहता ख़ुश्क कोई
कब्र जाने आदमी है, मत लिखो पंकज ये घर है

मौलिक अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 14, 2017 at 7:53pm
आदरणीय लक्ष्मण धामी सर सादर आभार प्रेषित है
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 14, 2017 at 7:53pm
आदरणीय लक्ष्मण धामी सर सादर आभार प्रेषित है
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 2, 2017 at 11:40am

आ. पंकज भाई जी , बहुत अच्छी गज़ल कही है दिल से बधाइयाँ, स्वीकार कीजिये ।

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 2, 2017 at 9:28am
आदरणीय गिरिराज सर सादर प्रणाम, सुझाव बहुत बढ़िया है।।
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 2, 2017 at 9:28am
आदरणीय आरिफ़ भाई जान बहुत बहुत आभार

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 2, 2017 at 9:15am

आदरणीय पंक्कज भाई , बहुत अच्छी गज़ल कही है दिल से बधाइयाँ प्रेषित हैं , स्वीकार कीजिये ।

इक दफ़ा ही तो मिलीं थीं, पर खुमारी अब भी बाकी   -- 

इक दफ़ा ही तो मिलीं थीं, पर खुमारी है अभी तक       --- गेयता में अंतर देखियेगा , अगर सही लगे तो स्वीकार कीजिये ।

Comment by Mohammed Arif on February 1, 2017 at 5:10pm
आदरणीय पंकज कुमारजी, अच्छी ग़ज़ल । दाद के साथ मुबारक़बाद ।
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 31, 2017 at 10:50pm
आदरणीय हिमांशु जी सादर आभार
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 31, 2017 at 10:50pm
आदरणीय हिमांशु जी सादर आभार
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 31, 2017 at 10:50pm
आदरणीय बाऊजी सादर प्रणाम, आपके सुझावानुरूप संशोधन कर दिया है।।

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