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ग़ज़ल...गम जहाँ के पहलू में दो चार आ कर बैठ गए

फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन
2122 2122 2122 212
गम जहाँ के पहलु में दो चार आ कर रुक गये
हम उसी दोराहे पे तब सकपका कर रुक गये

रहगुज़र तपती हुई होती बसर भी कब तलक
दर्द था इफरात में वो छटपटा कर रुक गये

ये अदा भी खूब है उस संगदिल महबूब की
बिन बताये दिल में आये मुस्कुरा कर रुक गये

ज़ुस्तज़ू दीदार की होती मुकम्मल किस तरह
वो अदा से ओढ़ कर घूँघट लजा कर रुक गये

है फ़ज़ाओं में खबर गुजरेंगे वो इस राह से
मोड़ पर हम सर झुका आँखें बिछा कर रुक गये

(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on February 10, 2017 at 11:26am
उचित है अदरणीय आपके मार्गदर्शन अनुसार बदलाव करता हूँ...आपकी सह्रदयता नमन करता हूँ..
Comment by Samar kabeer on February 10, 2017 at 10:33am
जहां तक मेरा ख़याल है, आपके भाव 'रुक गये'शब्द से नहीं बदले,वैसे आप स्वतंत्र हैं ।
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on February 10, 2017 at 10:14am
देर से आने के लिए माफ़ी चाहता हूँ आदरणीय समर कबीर जी..अब इस ग़ज़ल में सम्पूर्ण परिवर्तन करना होगा..नमन करते हुए ये कहना चाहता हूँ कि 'रुक गये' से वो भाव नहीं उत्पन्न हो रहे जो लिखते समय मेरे ह्रदय में थे..मुझे लगता है ग़ज़ल को पटल से हटा लेना चाहिए जब तक सम्पूर्ण सुधार न हो..आगे आपकी आज्ञा..सादर
Comment by Samar kabeer on February 9, 2017 at 2:50pm
आपकी रदीफ़ बदलने के सिवाय कोई रास्ता नहीं । इस तरह देखिये कैसा लगता है :-
"ग़म जहाँ के पहलू में दो चार आकर रुक गये
हम उसी दोराहे तब से सकपका कर रुक गये"
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on February 9, 2017 at 12:18pm
गम जहाँ के पहलु में दो चार आ कर बैठे हैं
हम उसी दोराहे तब से सकपका कर बैठ हैं ..मतले में इस सुधार के साथ बाकी ग़ज़ल में भी यही सुधार करूँ तो उचित होगा?
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on February 9, 2017 at 12:11pm
नहीं नहीं अदरणीय आप बड़े हैं जो सदैव गलतियों को सुधारते और कुछ सिखाते रहते हैं..आखरी रुक्न पे मुझे भी शंका थी इसलिए ग़ज़ल को पहले मैंने अदरणीय गिरीराज जी को फेसबुक के इनबॉक्स में भेजी थी ताकि ये सुनिश्चित हो सके लेकिन अदरणीय गिरीराज जी हैदराबाद में हैं इस कारन जब उन्होंने मुझे बताया तब तक मैंने ओ बी ओ पे पोस्ट कर दी ये सोचकर कि मात्रा पतन ले सकूँगा शायद..और कमी होगी तो आप लोगों की पारखी नजरों से छुपी नहीं रहेगी..हो जाता है कई बार अदरणीय आप सभी की पोस्ट पे जा कर कुछ न कुछ सुधार करना कोई छोटी बात है..कोशश करता हूँ कुछ सुधार कर सकूँ..
Comment by Samar kabeer on February 9, 2017 at 10:24am
जनाब बृजेश कुमार'ब्रज'साहिब आदाब,मुझसे एक भूल अंजाने में हो गई,और वो ये कि आपकी ग़ज़ल की रदीफ़ के अरकान पर में ध्यान नहीं दे पाया,कारण ये कि इसी तरह की एक रदीफ़ किसी और ग़ज़ल की भी थी,वहाँ मैंने लिख दिया था,और में समझ रहा था कि आपको बता चुका हूँ।
आपकी रदीफ़ 'बैठ गये'इसके अरकान आपने 212लिये हैं,जबकि इसके अरकान 2112 होते हैं,कृपया इस तरफ ध्यान दीजिये, मैं ये बात आपको पहले नहीं बता सका इसके लिये माज़रत चाहता हूँ ।
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on February 8, 2017 at 9:57pm
आपकी उपस्थिति सदैव ही प्रेरणादायी होती है आदरणीय समर जी..सादर
Comment by Samar kabeer on February 8, 2017 at 10:30am
तक़ाबुल-ए-रदीफ़ का ऐब बड़े बड़े शायरों के यहां मिलता है,अगर इसे दूर कर लिया जाये तो बहतर,लेकिन अगर इसकी वजह से शैर का हुस्न बढ़ जाये तो गवारा होता है ।
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on February 7, 2017 at 10:13pm
जी आदरणीय पहले 'राह से' ही किया था लेकिन मुझे लगा कि तकाबुल ए रदीफ़ दोष हो रहा है इसलिए बदल दिया..आप कह रहे हैं तो सही होगा..अभी सुधारता हूँ..सादर

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