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साझा कौम (लघुकथा)

छोटा सा कस्बाई शहर जो बड़ी सिटी बनने की होड़ में अपनी तरुणाई छोड़ व्यस्क होने लगा था । जिसकी छाती पर स्वहस्ताक्षरित ठप्पा ये झुग्गी बस्ती थी जो अमूमन अब हर बड़े शहर की पहचान बन चुकी है ।
कुल जमा ढ़ाई सौ बीपीएल कार्डधारियों की बसाहट जिनकी हर सुबह भूख को जीतने की अथक कोशिश , शाम को एक उम्मीद के साथ ढल जाया करती थीं । इधर पिछले कुछ दिनों से इस शहर मे भी खूब जलसा - जुलूस होने लगें थे । एक अस्थायी रोजगार का सुनहरा अवसर ....
" हाफिज , रहमान , सलीम, केशव और मुन्ना ! जल्दी करो , समय हो गया । हमे पहले ग्राउंड मे पहुंचना है । फातिमा बाजी , इनके चेहरे पर गेरूआ अच्छी तरह मलना और वो झंडे इस तरह इनके कपड़ो पर टांको की सिर्फ गेरूआ झंडा हीं दिखे । "
सभी को निर्देश देता इस मंडली का सरपंच कैलाश थोड़ा सकपका कर चुप हो गया क्योंकि सामने हीं चिंतित नज़मा चाची आ खड़ी हुई थीं ।साथ मे कैलाश की माँ भी थी ।
" बेटा , ये खतरनाक है । कहीं इन धर्म के ठेकेदारों को भनक लग गयी तो ...फिर हमारा कौम ...हमारा खुदा ..." भय से कांप उठीं वो ।
" हाँ , बिटवा ऐसा न हो की हम गरीबन को जान के लाले पड़ जाए..." कैलाश की माँ बोली ।
" अरे माई ! कौन धर्म और कैसा ठेकेदार ? ये झंडा लगा के हलक फाड़ने के पांच - पांच सौ रूपये मिलेंगे हम सभी को और अभी पिछले महीने हीं तो फतवा अलि की नुमाइंदगी करने गये थे हम हरियाली बन्ना बनकर । सुनो चाची , हम गरीब गुरबों का एक हीं साझा कौम है... भूख , और खुदा भी एक है... रोटी !"
कैलाश मुस्कुरा कर फातिमा बाजी के हाथ से नमक लगी रोटी झपटता सभी को साथ लिए ग्राउंड की ओर निकल पड़ा...

(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment by Aparajita on February 10, 2017 at 8:22pm
आदरणीया राजेश दीदी , आपकी सकारात्मक टिप्पणी के लिए सादर धन्यवाद ...
Comment by Rahila on February 10, 2017 at 2:27am
बहुत खूब !,जहाँ रोटियों के लाले पड़े हों, वहां सबसे पहले पेट की आग मिटाने की फ़िक्र होती है ।क्योकिं बातें धर्म की हों या कर्म की,सब भरे पेट पर ही आती हैं।बहुत बधाई। सादर
Comment by Samar kabeer on February 9, 2017 at 9:19pm
मोहतरमा अपराजिता जी आदाब,अच्छी लगी आपकी लघुकथा,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
अपना एक शैर याद आ गया:-
"मिहनत करके खाते हैं सो जाते हैं
इनको दीन धरम का झगड़ा क्या मालूम"
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on February 9, 2017 at 6:23pm
शुरू से अंत तक, कहे से अनकहे तक कटाक्ष। वाह। बधाई।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 9, 2017 at 6:01pm

सच कहा गरीब को कहाँ धर्म कर्म की पडी है जहाँ रोटी के लाले पड़े हों वहाँ बस रोटी का जुगाड़ भर करना है बहुत उम्दा लघु कथा लिखी है आपने बहुत खूब दिल से बधाई लीजिये अपराजिता जी 

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