22/22/22/22
तूफाँ से गर प्यार करोगे,
बाहों को पतवार करोगे।
अब कर दो इज्हार-ए-मुहब्बत,
कब तक छुप छुप प्यार करोगे।
छोड़ोगे कब हुक़्म बजाना,
कब ख़ुद को मुख्तार करोगे।
पेश आएंगे सभी अदब में,
जब खुद शिष्ट आचार करोगे।
दरिया पार तभी होगा जब,
ज़र्फ़ अपना पतवार करोगे।
इश्क़ में' हद से' गुज़रने वालों,
तुम ख़ुद को बीमार करोगे।
शाम हुई फैला अँधियारा,
जाने कब इज़्हार* करोगे।
*चराग़ रौशन करना
ग़ज़ल मुक़म्मल तब ही होगी
ग़म को जब अश्आर करोगे।
इश्क़ में' पड़ कर "रोहित" तुम भी,
वक़्त अपना बेकार करोगे।
.
रोहिताश्व मिश्रा
(मौलिक एवम अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय रोहिताश्व भाई , अच्छी ग़ज़ल कही है , मुबारकबाद कुबूल कीजिये ।
आपने मिसरा बदल लिया है ... फिर भी जानकारी केलिये बता रहा हूँ --- जब दोनो शब्दों मे मात्रा रहे तो ऐबे तनाफुर नही होता -- जैसे
अश्कों को ... ये भी सही था .. ।
बहुत बहुत शुक्रियः आशुतोश भाई जी
बहुत बहुत शुक्रियः आरिफ भाई जी
Thanku....
बहुत बहुत शुक्रियः रवि भाई जी
हम उस मिस्रे के बारे में कुछ ओर सोचते हैं
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