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तू दूर हो तो मौत से कोई गिला नहीं।

२२१/२१२१/१२२१/२१२
तू दूर हो तो मौत से कोई गिला नहीं।
हो पास गर तो कुछ भी यहाँ ज़ीस्त सा नहीं।

आएगी रौशनी यहाँ छोटी दरारों से,
है झौपड़ी में कोई दरीचा बड़ा नहीं।

आएगा कैसे घर पे कहो कोई नामाबर,
उनके किसी भी ख़त पे जब अपना पता नहीं।

मैं सोचता हूँ कह लूँ मुकम्मल ग़ज़ल मगर,
मेरे मिज़ाज का कोई भी क़ाफ़िया नहीं।

ढूँढोगे तुम तो चाँद से मिल जायेंगे, मगर,
"रोहित" सा इस जहाँ में कोई दूसरा नहीं।



रोहिताश्व मिश्रा,
फ़र्रुखाबाद
(मौलिक एवम् अप्रकाशित)

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Comment by रोहिताश्व मिश्रा on January 17, 2017 at 9:04pm
Ji sir..
Hum sahi kar lete hain..
Thanku..
Comment by Samar kabeer on January 17, 2017 at 8:55pm
तीसरे शैर का ऊला मिसरा यूँ कर लें,दोष निकल जायेगा:-
"आएगा कैसे घर पे कहो, कोई नामाबर"
Comment by Samar kabeer on January 17, 2017 at 8:50pm
शुतरगुर्बा का दोष है,जनाब भंडारी जी,मैं लिखना भूल गया था ।
Comment by रोहिताश्व मिश्रा on January 17, 2017 at 8:46pm
Bahut bahut shukriyh sir.
Sir.. hum us she'r mein confuse hain..
Aisa ho sakta hai ki nahin...

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Comment by गिरिराज भंडारी on January 17, 2017 at 8:21pm

आदरणीय रोहिताश्व भाई , अच्छी गज़क कही है , बधाइयाँ स्वीकार करें ।

इस् शेर  मे -
आएगा कैसे घर पे मेरे कोई नामाबर,   
उनके किसी भी ख़त पे जब अपना पता नहीं।    ----     उला मे  मेरे   और सानी मे अपने ,   कहना क्या सही है ?   

Comment by रोहिताश्व मिश्रा on January 17, 2017 at 6:31am
Thanku sir..
☺☺

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 16, 2017 at 9:47pm

आदरणीय रोहित जी, बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने. हार्दिक बधाई. सादर 

Comment by रोहिताश्व मिश्रा on January 16, 2017 at 11:48am
Thanku sir.
Hum sahi krte hain...
Comment by Samar kabeer on January 16, 2017 at 10:57am
जनाब रोहित मिश्रा जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
तीसरे शैर के ऊला मिसरे में 'नामबर'को "नामाबर"कर लें ।

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