देर तक .....
जब तुम
जब अंतर तट पर
अपने समर्पण की सुनामी
लेकर आये थे
मेरी देह
कंपकपाई थी
देर तक
जब तुम ने
रक्ताभ अधरों को
तृषा का
सन्देश दिया था
मेरे अधर की
हर रेख
मुस्कुराई थी
देर तक
जब तुम ने
अपनी बंजारी नज़रों से
मुझे निहारा था
मेरी निशा
तुम्हारी बंजारन बन
थरथराई थी
देर तक
जब तुम
मेरी प्रतीक्षा की
प्रथम आहट बने थे
मेरी श्वास
गुनगुनाई थी
देर तक
जब रजनी ने
भोर को
पुकारा था
अपने भ्र्मर के लिए
मैं मधुऋतु बन
अपने अंतर से
उसके अंतर तक
समर्पित हो
शरमाई थी
देर तक
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
आदरणीय शिज्जु शकूर साहिब प्रस्तुति में निहित भावों को अपना आत्मीय मान देने का हार्दिक आभार।
बहुत सुंदर आ. सुशील सरन सर बहुत बहुत बधाई आपको
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