2122 2122 2122 212
पग सियासी आँच पर मधु भी जहर होने को है।
बच गया ईमान जो कुछ दर-ब-दर होने को है।।
मुफलिसों को छोड़कर गायों गधों पर आ गई।
यह सियासत आप पर हम पर कहर होने को है।।
उड़ रहा है जो हकीकत की धरा को छोड़ कर।
बेखबर वो जल्द ही अब बाखबर होने को है।।
वो जो बल खा के चलें इतरा के घूमें कू-ब-कू।
खत्म उनके हुस्न की भी दोपहर होने को है।।
जुल्म से घबरा के थक के हार के बैठो न तुम।
"हो भयावह रात कितनी भी सहर होने को है॥"
आशीष यादव
मौलिक एवम् अप्रकाशित
Comment
आदरणीय श्री गिरिराज भंडारी जी गजल पर आपकी आमद एवं हौसला अफजाई के लिए शुक्रिया।
आदरणीय श्री महेंद्र कुमार सर गजल पर आपकी आमद एवं हौसला अफजाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया।
आदरणीय आशीष भाई , बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है , हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार कीजिये ।
आदरणीय विद्वजन अंतिम बेबहर मिसरे ( इस भयावह रात की भी सहर होने को है।। ) के स्थान पर क्या यह मिसरा उचित रहेगा?
"हो भयावह रात कितनी भी सहर होने को है॥"
कृपया उचित सुझाव दीजिये।
आदरणीय Mohammed Arif जी बहुत बहुत आभार। आप ने मुझे इतना मान दिया।
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी बहुत बहुत आभार। आप ने मुझे इतना मान दिया।
आदरणीय JAWAHAR LAL SINGH जी बहुत बहुत आभार।
आदरणीय Dr Ashutosh Mishra जी बहुत बहुत आभार। गलती से अवगत कराने का शुक्रिया।
इस भयावह रात की भी सहर होने को है।।
यह मिसरा बहर से बाहर है।
आदरणीय Gurpreet Singh जी बहुत बहुत आभार। गलती से अवगत कराने का शुक्रिया।
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