शंका और विश्वास के दोराहे पर
मन में पीली धुंधली उदास गहरी
बेमाप वेदना यथार्थों की लिए
स्वीकार कर लेता हूँ सभी झूठ
कि जाने कब कहाँ किस झूठ में भी
किसी की विवशता दिख जाए, या
मिल जाए उसकी सच्चाई का संकेत
कि जानता हूँ मैं, यह ठंडी पुरवाई
यह फैली हुई धूप नदी-झील-तालाब
सब कहते हैं ...
वह कभी झूठी नहीं थी
ऊँची उठती है कोई उभरती कराह
स्वपनों के अनदेखे विस्तार में
विद्रोह करते हैं मेरे अन्त:स्वर
बुलबुलों-से फूट जाते हैं मेरे संक्ल्प
और लौट आता हूँ मैं उसी द्वार पर
झंकृत हुए थे जहाँ मेरी सूनी सितार के तार
और फिर कुछ हुआ, बहुत बुरा हुआ
वह तार नियति ने निर्दयता से कस दिए इतने
कि तकलीफ़ भरी छाती में है अभी तक
कोई गड्ढा गहरा ...
चारों तरफ़ बेचैनी !
झूठ ? कैसा झूठ ? ... दोष मेरा ही होगा
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
रचना की उत्तम सराहना के लिए हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय सुशील सरना जी।
रचना की सराहना के लिए हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय भाई गिरिराज जी।
रचना की सराहना से आपने मेरा मनोबल बढ़ाया। इसके लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय महेन्द्र जी।
वह तार नियति ने निर्दयता से कस दिए इतने
कि तकलीफ़ भरी छाती में है अभी तक
कोई गड्ढा गहरा ...
चारों तरफ़ बेचैनी !
झूठ ? कैसा झूठ ? ... दोष मेरा ही होगा
वाह अंतर्द्वंद की अप्रतिम प्रस्तुति सर .... हमेशा की तरह दिल को छूती इस दिलकश प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई सर. .
रचना की सराहना के लिए हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ जी।
रचना की सराहना के लिए हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह जी।
रचना पर आपसे इतना मान मिलना म्रेरे लिए पारितोषक है। आपका हार्दिक आभार, आदरणीय समर भाई।
आदरनीय बड़े भाई विजय जी , सच्चा प्यार विवश ही होता है शयद , और इसीलिये कभी इससे इतर सोच ही नही पाता है । आपकी कविता मुझे एक विवश प्रेम की आत्मकथा लगी । बहुत खूब ... हार्दिक बधाइयाँ
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