कुछ मचल-मचल
कुछ सम्हल-सम्हल
सब रंग लुटाने आया फागुन का छलिया...
घोल हवा में मस्ती की लहराती धुन,
गीत मिलन के मीठे से गाता गुनगुन,
मुस्काता आँखों में भर कर शैतानी,
मैं हारी ! चलने दी उसकी मनमानी,
गुपचुप-गुपचुप
लुकछुप-लकछुप
फिर रास रचाने आया नटखट सा रसिया...
सोये सपनों की खिड़की पर दे दस्तक,
नेह ठिठोली के माँगे वो सारे हक़,
मुट्ठी में भींचे रंगों को छितराकर,
ठिठकी सी मुस्कानें इतरा दीं हँसकर,
लहकी-लहकी
बहकी-बहकी
मनरंगी अरमानों की लाया चूनरिया..
लाल-गुलाबी रिश्तों का ताना-बाना,
जाने कब बुन बैठा शातिर अनजाना,
लाख छुटाऊँ मगर रंग ना छूटेंगे,
इस बंधन के धागे अब ना टूटेंगे
दीवाना कर
मस्ताना कर
पक्का अबीर उसने तन-मन पर डाल दिया...
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