हाजिरी वो ज्यों लगाने आ गए
याद उनको फिर बहाने आ गए
मुट्ठियों में वो नमक रखते तो क्या
जख्म हमको भी छुपाने आ गए
चल पड़े थे हम कलम को तोड़कर
लफ्ज़ हमको खुद बुलाने आ गए
जेब मेरी हो गई भारी जरा
दोस्त मेरे आजमाने आ गए
रोज लिखना शायरी उनपर नई
याद हमको वो फ़साने आ गए
शमअ इक है लाख परवाने यहाँ
इश्क में खुद जाँ लुटाने आ गए
झील में अश्जार के धुलते बदन
कुछ परिंदे भी नहाने आ गए
देख कर आकाश पर कौस-ए-क़ज़ह
लोग आँखों से चुराने आ गए
आशनाई उनकी आँखों से कमाल
अश्क मेरे झिलमिलाने आ गए
हाथों पैरों में हिना गीली मगर
बज़्म की रौनक बढाने आ गए
------मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आद० शून्य आकांक्षी जी ,ग़ज़ल पर आपकी शिरकत से हर्षित हूँ आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हो गया दिल से बहुत बहुत आभारी हूँ |
"मुट्ठियों में वो नमक रखते तो क्या
जख्म हमको भी छुपाने आ गए"
वाह वाह ! बहुत खूब ! शानदार ग़ज़ल | हार्दिक बधाई आदरणीया rajesh kumari जी .......
आद० गिरिराज भंडारी जी,आपको ग़ज़ल पसंद आई तहे दिल से शुक्रिया समर भाई जी के मार्गदर्शन में यूँही आगे बढ़ते रहें दुआ है खुदा से
आद० समर भाई जी पुनः आभार |
आदरणीया राजेश जी , बेहतरीन गज़ल कही है आपने , बधाइयाँ स्वीक्कार करें । आ. समर भाई की प्रतिक्रिया से एक और शब्द का ज्ञान हुआ .. उनका भी आभार ।
ओह्ह्ह भाई जी फिर से गलती हो गई जबकि मूल पोस्ट में ये सुधार कर चुकी हूँ अच्छा आपने फिर ध्यान दिलाया ये तो अर्थ का अनर्थ हो गया अभी संशोधित करती हूँ |
मोहतरम जनाब तस्दीक साहब आपको ग़ज़ल पसंद आई तह-ए-दिल से आपका बहुत- बहुत शुक्रिया|
आद० नीलेश भैया, आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ दिल से बहुत- बहुत शुक्रिया आपका |
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