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व्यर्थ है......

व्यर्थ है
कुछ भी कहना
बस
मौन रहकर
देखते रहो
दुनिया को
तमाशाई नज़रों से
पूरे दिन

व्यर्थ है
कुछ भी सुनना
अर्थहीन शब्दों के
कोलाहल में
भटकते भावों की
तरलता में लुप्त
संवेदना के
स्पंदन को

व्यर्थ है
कुछ भी ढूंढना
इस नश्वर संसार में
आदि और अंत का
भेद पाने के लिए
स्वयं में
स्वयं से
मिलने का
प्रयास करना
और
अंततः
तृष्णा से साक्षात्कार कर
फिर लौट आना
अंतर्मन की कंदराओं में
चुपचाप
एक व्यर्थ से
अवसाद में लिपटे
क्षरण होते
पलों को
निर्निमेष
बेबसी से
तकते हुए
अंतहीन
शाम की लालिमा में नहाये
क्षितिज़ को
एक व्यर्थ सी
आस के साथ

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on April 12, 2017 at 2:51pm

आदरणीय गिरिराज जी भाई साहिब प्रस्तुति को अपनी आत्मीय प्रशंसा से शोभित करने का हार्दिक आभार। 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 9, 2017 at 7:06am

आदरनीय सुशील भाई , जीवन की सच्चाइयों को इंगित करती आपकी इस सार गर्भित कविता के लिये हार्दिक बधाइयाँ ।

Comment by Sushil Sarna on April 7, 2017 at 8:08pm

आद. Mahendra Kumar जी प्रस्तुति के भावों को आत्मीय मान देने का हार्दिक आभार। 

Comment by Mahendra Kumar on April 7, 2017 at 7:51pm
बहुत उम्दा कविता है आदरणीय सुशील सरना जी। हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए। सादर।
Comment by Sushil Sarna on April 7, 2017 at 6:47pm

आ. narendrasinh chauhan जी सृजन आपकी मधुर प्रतिक्रिया का हार्दिक आभारी है। 

Comment by narendrasinh chauhan on April 7, 2017 at 6:17pm

लाजवाब 

Comment by Sushil Sarna on April 7, 2017 at 1:27pm

आ.मोहमद आरिफ साहिब सृजन आपकी हृदयग्राहि अभिव्यक्ति से उपकृत हुआ।  हार्दिक आभार। 

Comment by Mohammed Arif on April 6, 2017 at 1:59pm
आदरणीय सुशील सरना जी आदाब, बेहतरीन रचना ।हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।

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