२१२२/१२१२/२२
हमने अपने ही पाँव काटे हैं,
इस सड़क पर के छाँव काटे हैं।
जो परींदा मजे से रहता था,
उनके तो सारे ठाँव काटे हैं।
दौड़ना चाहती है हर बेवा,
पर ये दुनिया ने पाँव काटे हैं।
वार जिसने भी करना चाहा तो,
उसके तो सारे दाँव काटे हैं।
जानकर जा रहे शहर(१२) तुम भी,
इस शहर(१२)ने ही गाँव काटे हैं।
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय हेमंत जी छोटी बहरो में बड़ी शानदार बहर चुनी आपने बात कहने के लिये मुबारक इसके लिये । गजल के मतले को अधिक समय दीजिये अभी सानी मिसरा बहुत समय मांगता है बात स्प्ष्ट नहीं हो पा रही है न शब्द प्रयोग से न अर्थ से ।
दूसरे शेर में जो परिंदा एक वचन है और सानी मे आपने उनके सारे बहुवचन लिया है इसे शुतुरगुर्बा ऐब कहा जाएगा इसे भी सुधारना होगा ।
तीसरे ओर चौथे शेर में भी भाव स्प्ष्ट नहीं है
अखिरी शेर में आपने शह्र का वज्न 12 लिख कर मजबूरी को जाईज ठहराना चाहा है जब आपको उर्दू गजल में शह्र का वज्न मालूम है तो उसे सही वज्न में बांधिये नहीं तो इसे नगर लिख कर भी कहा जा सकता है आपकी गजल में भावों की अभिव्यक्ति में भाषा कहीं भी बाधक नहीं हो रही ।
यदि बुरा न माने तो इस गजल में केवल बहर का निर्वहन हो सका है आप इसे दुबारा देख सकते है । सादर
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