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2122 1122 1122 22
अब दुवाओं के लिए हाथ उठाया जाए ।
तेरे सर से न् कभी इश्क़ का साया जाए ।।

हुस्न मगरूर हुआ है ये सही है यारों ।
आइनॉ को न् उसे और दिखाया जाए ।।

होश खोना भी जरूरी है मुहब्बत के लिए ।
सुर्ख होठों पे कोई जाम सजाया जाए ।।

पूछ मत दर्द से रिश्तों की कहानी मेरी ।
ज़ह्र देना है तो बेख़ौफ़ पिलाया जाए ।।

एक हसरत के लिए जिद भी कहाँ है वाजिब ।
गैर चेहरों को चलो दिल में बसाया जाए ।।

बिक गई आज निशानी भी जो तुमने दी थी।
आखिरी रात है क्या दांव लगाया जाए ।।

इस से पहले वो बदल जाए न् वादा करके ।
कोई चर्चा न् सरेआम चलाया जाए ।।

वह उतारा है नया चाँद ज़मी पर देखो ।
ख़ास इल्ज़ाम मुकद्दर से हटाया जाए ।।

इक ज़माने से अना की है नुमाइश काफ़ी ।
नाज़नीनों का नया नाज़ उठाया जाए ।।

--नवीन मणि त्रिपाठी


मौलिक अप्रकाशित

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Comment by गिरिराज भंडारी on April 9, 2017 at 7:30am

आदरनीय नवीन भाई , अच्छी गज़ल हुई है , हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार करें ... गुणि जनों की सार्थक सलाहों का लाभ उठायें ।

Comment by Naveen Mani Tripathi on April 7, 2017 at 11:03pm
आ 0 कवीर सर सादर नमन। ग़ज़ल ठीक करूँगा ।
Comment by Naveen Mani Tripathi on April 7, 2017 at 11:02pm
आ0 रवि शुक्ला सर नमन । सुझाव बहुत अच्छा लगा । री राइटिंग करूँगा।
Comment by Samar kabeer on April 7, 2017 at 9:56pm
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

ग़ज़ल में सबसे अहम किरदार मतले का होता है,जब मतला ही कमज़ोर हो तो ग़ज़ल का पूरा लुत्फ़ हासिल नहीं होता,आपकी ग़ज़ल के मतले का ऊला मिसरा मन्तिक़(तार्किकता)के लिहाज़ से बिल्कुल ग़लत है,:-
'अब दुआओं के लिये हाथ उठाया जाए'
जब दुआ मांगी जाती है तो दोनों हाथ उठाकर मांगी जाती है,एक हाथ से नहीं,इस हिसाब से मिसरा यूँ कहना होगा :-
'अब दुआओं के लिये हाथ उठाये जाएँ'
इसलिये ऊला मिसरा बदलना होगा,मैं यहाँ कोई मिसरा सुझाव के तौर पर नहीं बता रहा हूँ,आप कहेंगे तो बता दूँगा ।
'आइनों'वाले मिसरे पर जनाब रवि जी का सुझाया मिसरा उम्दा है ।
और बाक़ी मिसरों पर भी उन्होंने सही मश्विरा दिया है,देखियेगा ।
Comment by Ravi Shukla on April 7, 2017 at 1:35pm

आदरणीय नवीन जी नमस्‍कार बड़ी अच्‍छी बहर चुनी है आपने बात कहने के लिये ये भी आहंग खेज बहर की गिनती में आती है ।  कुछ मिसरों में उनकी अं‍तर्कथा स्‍प्‍ष्‍ट नहीं हो पाई जैसे अाखिरी रात है क्‍या दाव लगाया जाए । शेर अपने अर्थ को स्‍पष्‍ट नहीं कर पाया दूसरें शेर का सानी मिसरा इस तरह कहें तो कैसा रहे एक त्‍वरित सुझाव मात्र है यदि सही लगे तो

आइना उसको न अब और दिखाया जाए  ।  इस गजल को अभी रख दीजिये और आदरणीय वीनस जी  की सलाह के अनुसार कम से कम 15 दिन बाद दुबारा पढे आपको खुद इसमें कुछ संशोधन और शब्‍द संयोजन समझ आने लगेंगे । फिर देखिये इस गजल का रूप । गजल का एक अच्‍छा प्रयास हुआ है उसके लिये दिली बधाई हाजिर है ।

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