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रंग बदलते रुख़सारों से क्या लेना ।
रोज मुकरते किरदारों से क्या लेना ।।
गंगा को मैली करती हैं सरकारें ।
उनको जग के उद्धारोँ से क्या लेना ।।
खूब कफ़स का जीवन जिसको भाया है ।
उस पंछी को अधिकारों से क्या लेना ।।
जंतर मंतर पर बैठा वह अनसन में ।
राजा को अब लाचारों से क्या लेना ।।
टूट चुका है उसका अंतर मन जब से ।
जग में दिखते मनुहारों से क्या लेना ।।
फुटपाथों पर जिस्म बिक रहा खबरों में ।
उसको छपते अखबारों से क्या लेना ।।
काम न् आए नेता जो भी मौके पर ।
हमको उसके आभारों से क्या लेना ।।
दफ़्न हुए भौरे पंखुड़ियों में फँस कर ।
फूलों को इन बेचारों से क्या लेना ।।
परिणामों पर खूब हुई चर्चा देखो ।
इस चर्चा पर गद्दारों से क्या लेना ।।
सच को ही मै सच कहता हूं महफ़िल में ।
कान लगे इन दीवारों से क्या लेना ।।
हो न् सका जो बाप का वो जनता का कब ।
राजनीति के खुद्दारों से क्या लेना ।।
-- नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
Comment
बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है आद० नवीन जी बधाई स्वीकारें
आदरणीय नवीन भाई , अच्छी ग़ज़ल कही है ... बधाइयाँ स्वीक्कार करें ।
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