2122 2122 2122 212
पा लिया, खोया किसीने,चल रहा यह सिलसिला
ख्वाहिशें अनजान थीं जो कुछ मिला अच्छा मिला।1
गर्दिशों के दौर में अरमान मचले कम नहीं
पर सरे पतझड़ यहाँ उम्मीद का अँखुआ खिला।2
घाव देकर हँस रहे हैं आजकल बेख़ौफ़ वे
कौन अपनों से करेगा बोलिये फिर से गिला?3
डर गये जीते शज़र सब आँधियों के जोर से
सूखता-सा जो खड़ा है कब सका कोई हिला?4
ले घड़ा छोटा बहुत सब माँगते फिरते समद
माँगते उतना कि प्यासे होंठ को देते पिला।5
बुद्धिमानों का यहाँ <जमघट लगा हर मोड़ पर /span>
बिलबिलाता आदमी कब से कहो कुछ भी मिला?6
झूठ का धंधा चला है सच हुआ कुर्बा बहुत
थक गया है आदमी यूँ ढूँढ़ता अपना सिला।7
बेचता ईमां मुसाफिर साँस लेने के लिये।
भाव है उस जिंस का जिसमें रहे कुछ भी मिला।8
वीरताओं की कथाएँ केंचुए गढ़ने लगे
रीढ़ लज्जित है अभी लगता 'मनन' भी पिलपिला।9
'मौलिक व अप्रकाशित'@
Comment
आदरणीय मनन भाई , गज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है ... हार्दिक बधाइयाँ । गुणि जनो मे सही सलाहें दीं है ... खयाल कीजियेगा और प्रयास कीजियेगा ।
आद० मनन जी ग़ज़ल पर लगता है आपने मेहनत भी खूब की किन्तु बात नहीं बनी जैसा नीलेश भैया ने कहा है वाक्य विन्यास सही नहीं है मिसरों में
जैसे इस मिसरे को ही लो --माँगता उतना कि सकता होंठ को पानी पिला।5----ये कैसा वाक्य हुआ आदरणीय
क्या व्याकरण इसे स्वीकारेगा ? इसी तरह अन्य मिसरे भी देखिये
भाव बहुत अच्छे हैं कुछ शब्दों के हेर फेर से ग़ज़ल दुरुस्त हो सकती है मुझे विशवास है आप कर लेंगे
आ. मनन जी
मिसरों को स्वतंत्र वाक्य मान कर पढ़ें कि क्या वाक्य ऐसे लिखे जाते हैं या शब्द संयोजन अलग हो सकता है ... ऐसा करने से ग़ज़लियत बढ़ेगी ... सिर्फ़ मात्रा क्रम ही न गिनें ..शब्दविन्यास भी देखें
सदर
बहुत उलझा हुआ कहन है ...
शेर कहने की तरकीब भी सही नहीं है ..
चिंतन कीजयेगा
सादर
आदरणीय मनन साहेब......बहुत खूब ......हार्दिक बधाई स्वीकार करें
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