गा ल गा गा (ललगागा) / लल गागा/ ललगागा / गा गा (ललगा)
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ये तमाशा तो मेरे ज़ह’न के अन्दर निकला,
मैं बशर मैं ही ख़ुदा मैं ही पयम्बर निकला.
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ये ज़मीं चाँद सितारे ये ख़ला.... सारा जहान,
वुसअत-ए-फ़िक्र से मेरी ज़रा कमतर निकला.
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संग-दिल होता जो मैं आप भी कुछ पा जाते,
क्या मेरी राख़ से पिघला हुआ पत्थर निकला?
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सोचता था कि मेरे अश्क हैं क्यूँ कर नमकीन,
ज़ह’न की थाह में गुम-गश्ता समुन्दर निकला.
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धडकनों में हुई महसूस कोई तेज़ चुभन,
दिल टटोला तो किसी याद का नश्तर निकला.
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“नूर जी” ज़ह’न की आज़ादी प इतराते रहे,
पर अना शाह रही, ज़ह’न तो नौकर निकला.
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निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
पुन: धन्यवाद आदरणीय,
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सादर
धन्यवाद आ. गिरिराज जी ...
आभार
आदरनीय नीलेश भाई , लाजवाब गज़ल कही है ... हार्दिक बधाइयाँ स्वीकर करें ।
चर्चित मिसरे मे ... तो ... मुझे भी भर्ती का नही लगा ... और सार्थकता को आपने अच्छे से साबित भी कर दिया है .. ये मेरा अपना ख्याल है .. ।
आ. अनुराग जी,
हटाकर पढना होता तो लिखता ही क्यूँ??
वहाँ तो उस तमाशे के अन्दर ही होने की ज़मानत है ...
सादर
शुक्रिया आ. शिज्जू भाई ....
मिसालें इसलिये दी हैं ताकि अन्य सीखने वाले भ्रमित न हों ...
सादर
शुक्रिया आ. शिज्जू भाई
हुज़ूर ..
बहुत सोच कर इस तो तक पहुँचा हूँ....
वो आदमी ख़राब निकला ....और वो आदमी तो ख़राब निकला में जो भाव तो का है वही भाव यहाँ तो का है....
मेरे मिसरे में मुझे तो "तो" एक देजावू इफ़ेक्ट दे रहा है... एक सरप्राइज वाला भाव ..
जैसे
अरे त्तेर्री ...कहाँ कहाँ ढूंढा ..और ये चश्मा तो सामने ही रखा था ..
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दिल ही तो है न संग-ओ-खिश्त .......
दिल है मेरा, न संग-ओ-खिश्त....
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हम तो आये थे.. रहे शाख़ पे फूलों की तरह
तुम अगर ख़ार समझते हो तो हट जाते हैं ..सुदर्शन फ़ाकिर .
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ये तो नहीं कि ग़म नहीं
हाँ! मेरी आँख नम नहीं
तुम भी तो तुम नहीं हो आज
हम भी तो आज हम नहीं
अब न खुशी की है खुशी
ग़म भी अब तो ग़म नहीं ..रघुपति सहाय
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ते ये तय रहा कि तो हर बार भर्ती का नहीं होता ...
शायद आप को आशय स्पष्ट कर पाया हूँ... न कर पाया हूँ तो इसे मेरी कमज़ोरी मानकर स्वीकार कर लें ..
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सादर
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