2122, 212, 2122, 212
उससे मुझको सच मे कोई शिकायत भी नही,
हाँ मगर दिल से मिलूँ अब ये चाहत भी नही।
इस बुरुत पर ताव देने का मतलब क्या हुआ,
गर बचाई जा सके खुद की इज्जत भी नही।
अब अँधेरा है तो इसका गिला भी क्या करें,
ठीक तो अब रौशनी की तबीअत भी नही।
आती हैं आकर चली जाती हैं यूँ ही मगर,
इन घटाओं मे कोई अब इक़ामत भी नही।
जुल्म सहने का हुआ ये भी इक अन्जाम है,
अब नजर आँखों में आती बगावत भी नही।
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
बहुत खूब आ. हेमंत जी...
अच्छी ग़ज़ल के लिये बधाई...
एक सवाल और है जो भी गुण्ाी जन इस गजल पर आएं कृपया बताएं कि इस बहर में शिकस्ते नारवां की गुजांइश है या नहीं । हमें पढने में लग रहा है ।
आदरणीय हेमंत जी अच्छी गजल कही है आपने मुबारकबाद कुबूल करें ।
आखिरी शेर पर नज्र और नजर में हमें कुछ संशय है आप शायद देखने की बात कर रहे है आपने नज्र लफ्ज लिया है जिसका अर्थ अता करना है देना है । शेर के हिसाब से नजर उपयुुक्त हो सकता है
अब नजर आखों में आती बगावत भी नहीं इस पर भी विचार कर सकते है
चौथे शेर में सानी मिसरें में पहला रुक्न देख ले बरसती 122 के वज्न में है और अपनी बहर 2122 है । सादर
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