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है तर्कों की कहाँ.. हद जानता हूँ
मुबाहिस का मैं मक़्सद जानता हूँ
करें आकाश छूने के जो दावे
मैं उनका भी सही क़द जानता हूँ
बबूलों की कहानी क्या कहूँ मैं
पला बरगद में, बरगद जानता हूँ
बदलता है जहाँ, पल पल यहाँ क्यूँ
मै उस कारण को शायद जानता हूँ
पसीने पर जहाँ चर्चा हुआ कल
वो कमरा, ए सी, मसनद जानता हूँ
यक़ीनन कोशिशें नाकाम होंगीं
मै उनके तीरों की जद, जानता हूँ
मिरा गिरना किसी की है मसर्रत
हुआ है कौन गद गद, जानता हूँ
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
यह गज़ल आ. समर भाई की गज़ल की अधूरी ज़मीन पर कही है ... अधूरी इसलिये, क्योंकि इसमे काफिया मेरी है और रदीफ आ. समर भाई जी की ... आभार आ. समर भाई जी का ।
Comment
आदरणीय गिरिराज भाई जी बहुत ही अच्छी गजल कही आपने शेर अपने संदर्भ को स्पष्ट कर रहे है इस बढि़या गजल के लिये आपको बहुत बहुत मुबारक बाद और दाद पेश करते है । तीसरे शेर पर शिद्दत लेने से क्या काफिया का निर्वाह होगा ये संशय है । आखिरी शेर के सानी मिसरे का पहला रुक्न भी हमें नहीं समझ आया । सादर
करे आकाशा छूने के जो दावे
मैं उनका भी सही क़द जानता हूँ
बदलता है जहाँ, पल पल यहाँ क्यूँ
मै उस कारण को शायद जानता हूँ इन अशआर के लिये अलग से बधाई हाजिर है
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