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नजर से दूर रहकर भी जो दिल के पास रहती है
कभी नींदें चुराती है कभी ख्वाबों में मिलती है.
चमकना चाँद सा उसका मेरी हर बात पर हँसना
कहीं फूलों की नगरी में कोई वीणा सी बजती है.
ये भोलापन हमारा है कि है जादूगरी उसकी
वफ़ा फितरत नहीं जिसकी वही दिलदार लगती है.
कभी मैं भूल जाऊँगा उसे कह तो दिया लेकिन
जो दिल पर हाथ रक्खा तो वही धड़कन सी लगती है.
तुम्हारा जो बचा था पास मेरे ले लिया तुमने
तुम्हारी प्रीत की खुश्बू अभी भी मुझमे बसती है.
कभी जो मुड़ के देखोगे मुझे तो जान जाओगे
कि रिश्ता टूट जाने में कहीं तेरी भी गलती है.
नीरज कुमार नीर
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
बहुत शुक्रिया जनाब समर साहब ...
आदरणीय नीरज भाई , अच्छी गज़ल कही है , हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार करें ।
आपका हार्दिक आभार निलेश जी
आ. नीरज जी,
.
मिलती और रहती में ती शब्द को क्रिया रूप दे रहा है
मूल शब्द हैं मिल और रह...और इन दोनों में काफ़िया नहीं बन रहा
रहती..कहती..सहती
मिलती..खिलती...आदि
मोहम्मद आरिफ साहब शुक्रिया
आदरणीय निलेश जी आपका आभार. एक बार यहाँ भी इशारा कर दें तो मेहरबानी होगी .
आ. नीरज जी
रचना का स्वागत है....
मतले में काफ़िया ठीक नहीं है ..इस विषय पर ग़ज़ल की कक्षा में काफ़िये पर उपलब्ध आलेख पढ़ें ..
बारीक़ बातें बाद में होती रहेंगी..
.
सादर
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