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एक नवगीत

 

गायब हैं नकली रंगों में,

होली के हुडदंग.

नजर न आती आसमान में,

उड़ती हुई पतंग.

 

पड़ी ठण्ड जब रहे सिकुड़ते,

मिली न छत सबको,

मई जून में खूब तपाया,

सूरज ने हमको.

 

बारिश में बदली की चादर ,

होती देखी तंग

 

बड़े फ्लैट हैं, कारें लम्बी,

दिल उतना छोटा.

झुग्गी झोंपडियों के अन्दर,

धूप हवा का टोटा.

 

नहीं साथ में रहते हैं अब,  

खटिया और पलंग

 

सजी नगर में है चौपाटी,

लगा हुआ मेला.

खड़ा गाँव की चौपालों में,

है बस नीम अकेला.

 

रहता तो इंसान साथ, पर,

दिखती नहीं उमंग.

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by बसंत कुमार शर्मा on May 11, 2017 at 10:00am

आदरणीय बृजेश कुमार 'ब्रज' जी का ह्रदय से आभार

Comment by बसंत कुमार शर्मा on May 11, 2017 at 9:59am

आदरणीय narendrasinh chauhan जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on May 10, 2017 at 8:25pm
उत्तम बहुत ही उत्तम सृजन हुआ आदरणीय..सादर
Comment by narendrasinh chauhan on May 10, 2017 at 5:57pm

बहोत खूब 

Comment by बसंत कुमार शर्मा on May 10, 2017 at 12:52pm

आपका प्रोत्साहन पाकर अभिभूत हूँ आदरणीय Mohammed Arif जी, आपको गीत पसंद आया बहुत बहुत शुक्रिया 

Comment by Mohammed Arif on May 10, 2017 at 11:48am
आदरणीय बसंत कुमार शर्मा जी आदाब,एक और धमाकेदार गीत की सौग़ात !वाह! क्या लाजवाब गीत है । दर्द है , पीड़ा है , बिछुड़न है , खो जाने और यादों का शेष बचा एलबम है । सच है बाज़ारवादी अर्थ व्यवस्था ने सबको कूचल कर रख दिया है । ढेरों बधाईयाँ स्वीकार करें ।

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