धूप की तिरछी किरणें
बारिश की बूँदें
रंभाती हवाएँ
सभी एक संग ...
धूल के कण
मानो उड़ रहे हैं सपने
विचित्र रूप ओढ़े है धरती
सारा कमरा
चौकन्ना हो गया है
असंतोष मुझको है गहरा
लौट-लौट आ रहे हैं
दर्दीले दृश्य दूरस्थ हुई दिशाओं से
भूली भीषण अधूरी कहानी-से
उलझे ख़याल ...
तुम्हारे, मेरे
मकड़ी के जाल में अटके जैसे
हमारे सारे प्रसंग
जिनका आघात
हम दोनों को लगा
सोचता हूँ, यह अंत है खेल का
या, एक और खेल है अंत में
या, तैरते-उतरते
पुण्य और पाप को संकेतित करती
यह अंतिम पलों की लीला है क्या
कि हवा में घुल-घुल कर
प्रकाश-बिम्ब-से
स्पष्ट हो रहे हैं मानो अब अर्थ व्यर्थ
अजनबी हुई अकुलाती आकांक्षाओं के
आत्मा के आस-पास शायद इसीलिए
साक्षी हैं श्रद्धा के द्वार पर
ध्वनिगुंजित पल
स्वप्निल आत्मीयता की उष्मा के
दर्दभरी संकुचित दूरी में भी
स्नेह के सत्य में मेरे अटूट विश्वास के
और, जो हुआ, सही था, या गलत हुआ
तुम्हारी सोच में नि:संदेह उसमें
कहीं न कहीं मेरे अपराध के
काल-सर्प-से इस अंतिम समय में
किस-किस असंग प्रसंग में
क्या-क्या सँवारेंगे हम
कि जिस वेदना में पलती हो तुम
छुपने के लिए उसीसे
कुछ और गहरे
गहरे उतर जाती हो मुझमें
मुझको .. जाते इन पलों में
उसकी भी वेदना है
---------
-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, भाई लक्ष्मण धामी जी।
// निःशब्द हूँ मूक हो गए हैं सब शब्द ... अहसासों को जिस सजीवता से आपने चित्रित किया है वो अनुपम, अतुलनीय है। भाव प्रवाह इतना सशक्त है कि आरम्भ से अंत तक जिज्ञासा का अंत नहीं होता //
आपकी यह सुन्दर प्रतिक्रिया मेरे लिए पारितोषिक है, मेरे भाई सुशील जी।
आपका हृदयतल से आभार, आदरणीय भाई।
//बहुत ही सुंदर अहसास और भाव युक्त कविता//
इस मान के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय भाई तस्दीक अहमद जी।
काल-सर्प-से इस अंतिम समय में
किस-किस असंग प्रसंग में
क्या-क्या सँवारेंगे हम
कि जिस वेदना में पलती हो तुम
छुपने के लिए उसीसे
कुछ और गहरे
गहरे उतर जाती हो मुझमें
मुझको .. जाते इन पलों में
उसकी भी वेदना है
वाह आदरणीय विजय निकोर जी निःशब्द हूँ मूक हो गए हैं सब शब्द ... अहसासों को जिस सजीवता से आपने चित्रित किया है वो अनुपम, अतुलनीय है। भाव प्रवाह इतना सशक्त है कि आरम्भ से अंत तक जिज्ञासा का अंत नहीं होता। इस अप्रतिम प्रस्तुति के लिए ढेरों बधाईयां आदरणीय। मां शारदे आप पर सदा मेहरबान रहें। सादर ...
मुहतरम जनाब विजय साहिब , बहुत ही सुंदर अहसास और भाव युक्त कविता हुई है
मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएँ
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय मोहित जी।
धन्यवाद, भाई आरिफ़ जी। वर्तनीगत त्रुटियों को मैं सुधार रहा हूँ। आभार।
प्रिय मोहम्मद आरिफ़ भाई, क्षमाप्रार्थी हूँ... अभी-अभी ध्यान में आया कि आपसे मिली निम्न अमूल्य प्रतिक्रिया का उत्तर देना रह गया।
आपने सदैव जो मान दिया है, मैं हृदयतल से आपका आभारी हूँ। वर्तनीगत अशुद्धियों को मैं सुधारना चाहूँगा, अत: आप कृपया इनकी ओर संकेत दें ताकि मैं सुधार दूँ। ओ बी ओ की यही विशेषता है ।
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