गाँव जबसे कस्बे - - - -
गाँव जबसे कस्बे
होने लगे |
बीज अर्थों के,रिश्तों में
बोने लगे |
गाँव जबसे कस्बे- - - -
पेपसी,ममोज़ चाऊमीन से
कद बढ़ गया |
सतुआ-घुघुरी-चना-गुड़ से
बौने लगे |
पातियों का संगठन
खतम हो गया
बफ़र का बोझ अकेले ही
ढोने लगे |
गाँव जबसे कस्बे- - - -
पत्तलों कुल्ल्हडो की
खेतियाँ चुक गईं |
थर्माकोल-प्लास्टिक से
खेत बोने लगे |
मटकियों -गगरियों का
ज़माना लदा |
फ्रिज़ में रंगीन बोतल
संजोने लगे |
गाँव जबसे कस्बे- - - -
नीम के पेड़,द्वार के
बंट गए,कट गए
ए.सी.,कूलर के कमरों में
अलग बिछौने लगे |
ढोर-ढंगर बने बोझ
कोई रखता नहीं |
टॉमी-शेरू बिस्तरों पे
साथ सोने लगे |
गाँव जबसे कस्बे- - - -
जाता-सिल-ओखरी पे,ना
चूड़ी खनकती मिली
पैक्टो में स्वाद-ग्रन्थि
सिसकती मिली |
जामुन-महुए चुए तो
उठे ही नहीं
बोतलों के लेबलों से
खुश होने लगे |
गाँव जबसे कस्बे- - - -
द्वार की लाठियाँ
मुड़ गईं ,गिर गईं
आंगन-दहलान का
अंतर खोने लगे
चौपाले सूनी हुई
घर-घर घंटी बजी
व्हाट्सअप्प-फेसबुक पे
हंसने-रोने लगे |
गाँव जबसे कस्बे- - -
आत्मा ढूढ़ती है
गाँव छूटा हुआ
देह शहरों से
नेह लगाए पड़ा |
बस्तियाँ मध्यवर्ग की
मजबूरियाँ |ख्व़ाब काँटे के जैसे
गले में फँसा |
ख्व़ाब कांटे के जैसे
गले में फँसा |
सोमेश कुमार(मौलिक एवं अप्रकाशित)
सुधार एवं सुझाव अपेक्षित
Comment
मिटते धुंधलाते गाँव की याद दिलाती अचछी कविता . सप्रेम .
बहुत सुंदर सार्थक संदेश देती हुई कविता आज आधुनिकता के नाम पर हमने क्या क्या भेंट चढ़ा दिया सुंदर उदाहरण पेश करती हुई रचना बहुत बहुत बधाई आद० सोमेश जी
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