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ऐडजस्टमेन्ट्स (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

पता नहीं क्यों ज़ुबैर के क़दम कभी पापा के बेडरूम की ओर बढ़ जाते, तो कभी उस कमरे की ओर जहां उसकी मम्मी की सभी चीज़ें कबाड़ की तरह रख दीं गईं थीं। यही तो वे वज़हें हैं जो उसे नाना-नानी के घर से वापस पापा के घर खींच लाती थीं। मंहगाई और कलह के वातावरण में न तो कोई रिश्तेदार उसे ढंग से अपने पास रख पा रहा था, न ही पापा उसे किसी होस्टल में डाल पा रहे थे। पापा को नई मम्मी के साथ ख़ुश देखकर वह ख़ुश हो भी तो कैसे? दो साल पहले उसने अपनी आंखों से देखा था पैसों के ख़र्च के मसले पर बढ़ी बहस में पापा को मम्मी पर कुल्हाड़ी से वार कर उनकी हत्या करते हुए! चाचू और मामू दोनों की तरफ़ से कितनी होशियारी से मामले को रफ़ा-दफ़ा कर दिया गया था कोर्ट-कचहरी के चक्कर और ज़ुबैर के भविष्य की दलीलें देकर!

पढ़ाई-लिखाई छूट चुकी थी। उसे स्कूल भेजा गया था लेकिन वहां उसका मन ही नहीं लगा। मन तो पहली मम्मी और दूसरी मम्मी में ही उलझा रहता था।

"ये जब पापा की चहेती दूसरी बीवी बन सकतीं हैं, तो मेरी मम्मी जैसी मेरी चहेती माँ क्यों नहीं?" अक्सर वह पापा के बेडरूम के पर्दे से झांक कर यह सोचता।

"पापा के दिल में मम्मी की इन चीज़ों के लिए ज़रा भी चाहत क्यों नहीं?" दूसरे छोटे से कमरे में अपनी माँ की चीज़ों को छू कर मम्मी को महसूस करता ज़ुबैर अक्सर सोचता।

"पागल सा हो गया है, किसी मेंटल हॉस्पिटल में भर्ती करवा देंगे!" पापा को आज जब नई मम्मी से यह कहते हुए सुना तो नाना जी और मामूजान उसे फिर याद आ गये, लेकिन उनके घर की औरतों के ताने याद कर वह फिर से सिहर उठा।

तभी उसे नाना जी की समझाइश याद आ गई। "बेटा, थोड़ा वक़्त लगेगा, बरदाश्त करने का माद्दा रखो, तुम पापा के पास ही रहो, यही तुम्हारे लिए बेहतर है, यहाँ एडजस्ट करना सीख लिया, तो दुनिया में भी एडजस्ट करना सीख जाओगे!" आठ साल का ज़ुबैर नाना जी की इन बातों को कितना समझ पाया, यह उसका चेहरा देख कर ही समझ में आ जाता था।

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on July 15, 2017 at 2:06am
रचना पर उपस्थित होकर अनुमोदन व प्रोत्साहित करने के लिए सादर हार्दिक धन्यवाद आदरणीय महेंद्र कुमार जी।
Comment by Mahendra Kumar on July 12, 2017 at 9:30pm

बढ़िया लघुकथा है आ. शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on July 10, 2017 at 5:24pm
मेरी इस ब्लोग पोस्ट पर समय देने व प्रोत्साहन देने के लिए तहे दिल से बहुत बहुत शुक्रिया मोहतरम जनाब सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी।
Comment by नाथ सोनांचली on July 10, 2017 at 5:15am
जनाब शेख उस्मान साहब आदाब, बढ़िया मार्मिक लघुकथा लिखी है आपने, बधाई स्वीकारें।

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