व्यर्थ है ...
व्यर्थ है
अपनी आशाओं को
दियों की
उदास पीली
मटमैली रोशनी में
मूर्त रूप देना
व्यर्थ है
प्रतीक्षा पलों की
चिर वेदना को
कपोलों पर
खारी स्याही से अंकित
शब्दों के स्पंदन को
मूर्त रूप देना
व्यर्थ है
शून्यता में विलीन
पदचापों को
अपने स्नेह पलों में
समाहित कर
मौन पलों को
वाचाल कर
मन कंदरा के
भावों को
मूर्त रूप देना
हाँ
जानती हूँ
व्यर्थ है
सब कुछ
प्रेम
प्रतीक्षा
भाव
समर्पण
खारी लकीरें
मुंह चिढ़ाते
अंतरंग स्पंदन
सब व्यर्थ है
पर
फिर भी
न जाने क्यूँ
ये दिल है
जो मानता ही नहीं
बार बार
चाहता है
तुन्द हवाओं के बीच
अविश्वास की रेत पर
विशवास को
मूर्त रूप देना
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय vijay nikore जी सृजन को अपनी स्नेहिल प्रशंसा से अलंकृत करने का शुक्रिया।
हमेशा की तरह आपसे यही उमीद थी... बहुत ही सुन्दर रचना के लिए बधाई, आदरणीय सुशील जी।
आदरणीय नरेंद्र सिंह चौहान जी सृजन को अपनी स्नेहिल प्रशंसा से अलंकृत करने का शुक्रिया।
आदरणीय मो.आरिफ साहिब सृजन को अपने स्नेह से पोषित करने का हार्दिक आभार।
आदरणीय समर कबीर साहिब , आदाब ... सृजन को आपका आशीर्वाद न मिले तो अधूरापन लगता है। आपकी इस आत्मीय प्रशंसा का तहे दिल से शुक्रिया। सब व्यर्थ है मुझे सही लगता है .... बाकी इंगित टंकण त्रुटि को मैं अभी दुरुस्त किये देता हूँ ... इस हेतु बन्दे का शुक्रिया कबूल फरमाएं सर।
लाजवाब रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
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