यह संस्मरण लेखक, कवि, उपन्यासकार डा० रामदरश मिश्र जी के संग बिताय हुए सुखद पलों का है।
सपने प्राय: अप्रासंगिक और असम्बद्ध नहीं होते। कुछ दिन पहले सोने से पूर्व मित्र-भाई रामदरश मिश्र जी से बात हुई तो संयोगवश उनका ही मनोरंजक सपना आया ... सपने में बचपन के किसी गाँव की मिट्टी की सोंधी खुशबू, कुनकुनी धूप, और बारिश एक संग, ... और उस बारिश में बच्चों-से भागते-दोड़ते रामदरश जी और मैं ... कुछ वैसे ही जैसे उनकी सुन्दर कविता “बारिश में भीगते बच्चे” मेरे सपने में जीवंत हो गई हो।
कहते हैं न कि समय के संग प्राय: बहुत-कुछ बदल जाता है। यह सच भी है, परन्तु रामदरश जी ने हमारे परस्पर संपर्क के प्रति इस उक्ति को सदैव गलत ही साबित किया है। मिलने पर तो उनका और भाभी सरस्वती जी का अपार स्नेह है ही, परन्तु फ़ोन पर भी यह स्नेह कुछ ऐसा छलकता है मानो सामने पास ही बैठे हों ... और उनका हमेशा का आग्रह, “आप अब भारत कब आ रहे हैं ?” मुझको उनकी यह स्ववृत्ति प्रसन्न तो करती ही है, पर यह मेरे लिए भावप्रबल भी है, और मैं सोचता रह जाता हूँ .. इतना स्नेह ! ... इतना स्नेह !!
बातों में जब भाई रामदरश जी ने बताया कि अगस्त मास में उनकी तीन पुस्तकें और आ रही हैं तो मेरा मन आह्लादित हुआ। तीन पुस्तकें ... एक संग ! ... कविता संग्रह, आलेख, और सरस्वती भाभी जी के बचपन पर आधारित एक उपन्यास। वाह ! उनकी खुशी, उनकी सफ़लता से मन यूँ प्रसन्न होता है मानो मेरी यही खुशी हो।
मार्च २०१५ में भारत आने पर सौभाग्यवश दो बार उनसे मिलन हुआ। जब डराइवर को उनका घर ढूँढने में दिक्कत हुई तो वह स्वयं चलकर घर के पास गुरुद्वारे तक आए और घर ले गए। हाथ में उनके ९० साल की आयु का सहारा बनी एक छड़ी थी, पर उनके चेहरे पर मुस्कान और गालों पर लालगी अभी भी यौवन की ही थी। घर में गए तो भाभी जी की वही सुखद खिलखिलाती मुस्कान, और भाई रामदरश जी की मेरे प्रति और-और जानने की उत्सुक्ता । अब २ १/२ घंटे बीत गए ... भाभी जी के हाथ के परोसे स्नेहमय खाने का रसास्वादन ... वर्तमान साहित्य पर रामदरश जी के विचार, उनकी नई कविताएँ जो उन्होंने सुनाईं और मेरी कविताएँ सुनी... बातें जो कभी समाप्त ही नहीं होती थीं ।
हाँ, इस बीच भाई-भाभी ने एक बहुत ही दुखद समाचार साझा किया.. सुनकर मुझको यकीन नहीं हो रहा था, परन्तु जीवन का कटु तथ्य स्वीकार करना ही था... कुछ ही महीने पहले उनके बड़े बेटे की अकाल मृत्यु हो गई थी। १९६२ में अहमदाबाद में जब मैं पहली बार बेटे से मिला तब वह आंगन-में-खेलते छोटे बच्चे थे, और तत्पश्चात दिल्ली में उन्हें बड़ा होते देखा। २००९ में मेरे भारत आने पर उनसे मिलन भी हुआ। भगवान उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें।
कमरे की हवा में मानो नमी-सी आ गई। मैंने भी सोचा और आग्रह किया कि भाई-भाभी के दोपहर के आराम का समय न लूँ। अपार सदभावना और स्नेह के साथ रामदरश जी ने मुझको अपनी पुस्तक “बाहर-भीतर” की प्रति भी भेंट करी जिसमें उनके उन कुछ लोगों के संस्मरण हैं जो उनके जीवन में निशान छोड़ गए हैं। मेरे लिए यह भेंट और भी महत्वपूर्ण है क्यूँकि इसमें एक प्रश्ठ उनके-मेरे परस्पर अमूल्य स्नेहमय रिश्ते पर भी उन्होंने लिखा है। उनसे मिले इस मान से मन गदगद हुआ।
रामदरश जी के विचारों की गहराई, और पहनावे की.. मुस्कान की .. और व्यव्हार की सरलता ... लगता है कि वह कवि नहीं, स्वयं कविता होँ, और शब्द झर रहे हों। जब भी उनकी याद आती है तो अकेली नहीं आती, उनकी कोई न कोई कविता हवा में बहती सामने तैरती चली आती है, और मैं कितनी ही बार अकस्मात उस कविता की पंक्तियाँ गुनगुनाने लगता हूँ ... जैसे ... उनकी बहुत पुरानी मेरी प्रिय कविता “यात्रा और यात्रा” जो मैंने १९६५ में धर्मयुग पत्रिका में पढ़ी थी, और वह तब से मेरे स्मॄति-पटल पर जमी रह गई है ...
.... सिगनल की बाहें झुकी रहीं ... हरी-हरी झँडियाँ उठी रहीं, रुकी रहीं ...
एक-एककर स्टेशन छूटते चले गए ... खींचता रहा इंजन धुंए की रेखाएँ ... सोखता गया आकाश ...
लगता है कि उनकी कविताएँ, उनके गीतों का माधुर्य मेरी हथेलियों में भर गया है, या मुंडेर पर टिकी सुबह की प्यारी धूप हँसती हुई कुछ देर और ठहर गई है। आज भाई रामदरश जी से ५५ वर्ष के लम्बे स्नेहमय संपर्क पर सोचता हूँ तो मन सुखद अनुभूति से एक छोटे बच्चे के समान खिल उठता है, और आयु के इस पड़ाव पर उनके प्रति भावुक भी हो जाता हूँ ... उनकी ही पंक्तिया कुछ कह-कह जाती हैं ...
... खो गई सब यात्राएँ साथ की
रास्ता ही रास्ता अब रह गया ...
ऐसे में मैं बैठा सोचता हूँ, जीवन-यात्रा में कैसे कोई रिश्ते बिखरी रेखाओं को जोड़ हॄदय की सलेट पर अपना नाम लिख जाते हैं, आत्मा से आत्मा का अमिट गहरा संबन्ध जोड़ जाते हैं।
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
मुझको तो किसी भी रचना के बाद नहीं लगता कि वह मैंने लिखी हो। लगता है कि मेरी पहुँच से बाहर किसी दिव्य शक्ति ने मेरा हाथ पकड़ कर लिख दी हो। आदरणीय भाई समर कबीर जी, मुझको मान देने के लिए आपका हृदयतल से आभार ।
भाई गोपाल नारायन जी, काफ़ी समय बाद आपको अपनी रचना पर देखा, अच्छा लगा। रामदरश मिश्र जी कविता-से हैं, अत: उनका संस्मरण भी कविता-सा बना। सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय गोपाल जी।
//बेहतरीन संस्मरण आदरणीय बेहद सुंदर तरीके से आपने अपनी दोस्ती को लिखा है//
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीया कल्पना जी ।
आदरणीय भाई मोहम्मद आरिफ़ जी, इस सुविचारित प्रतिक्रिया के लिए हृदयतल से आपका आभारी हूँ।
मैं आपसे सहमत हूँ कि आज की भागमभाग और तनाव भरी ज़िंदगी में कौन किसे याद रखता है ।
वक्त और बेवक्त सभी किसी भागदोड़ में हैं। संस्मरण की सराहना के लिए पुन: आभार।
आ० निकोर सर ! बहुत शानदार प्रस्तुति हुई है बिलकुल आपकी कविताओं की तरह . साधुवाद .
बेहतरीन संस्मरण आदरणीय बेहद सुंदर तरीके से आपने अपनी दोस्ती को लिखा है और सुप्रसिद्ध साहित्यकार रामदरश मिश्र जी के बारे में जानकारियां उपलब्ध करवाई है | साधुवाद आपको |
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