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प्रतीक्षातुर पलों में, नींदों में

आर-पार जाती पारदर्शी सोच में

परस्पर आत्मीय पहचान 

हम दोनों के ओंठ मुस्करा देते

हवा में आगामी प्रातों की ओस-सुगन्ध

हमारी बातों में कहीं  "न"  नहीं  थी

कभी कोई इनकार नहीं था, पुकार थी बस

धधकते हुए सूरज में प्रखर तेज था तब

उस प्रदीप्त धूप की छाती में

कुछ भसम करने की चाह नहीं थी

मैदानों को चीरती हवाओं में

थी रोम-रोम में उमंग 

सूरज की उजाड़ किरणों में अब

अपने ही कंधों पर बोझ बने

स्नेह के पीले उतरे चेहरे में

खोजता फिरता हूँ  अर्थ  कहीं ...

कहाँ, क्यूँ और कैसे अचानक अनजाने

केवल हमारे रास्ते ही नहीं

तुम्हारे-मेरे शास्त्र, संबल-सिधांत हमारे

हो गए तार-तार सभी के सभी कुछ ऐसे

कि जैसे हमारे मज़हब ही अब अलग हुए

पर मज़हब तो प्रिय, विशाल-पर्वतों-से ऊँचे

युगानयुग से सनातन

हवाओं की ओज़ार-सी तेज़ रफ़्तार में भी

निर्बाध, निर्बंध, निश्छल

प्यार ही सिखाते हैं न

फिर अब सांवली दरारों में से

हाँफती यह उसाँस कैसी ?

कुचले हुए इरादों में अब

प्यार के वायदों की वारदातें

तुम्हारी साँसों की आवाज़ों में भी

कठिन कंटीले दुखों की कथाएँ

मौसम यहाँ कोई भी क्यूँ न हो

मैं आदतन, अब सिर्फ़ आदतन

मामूली सच्चाइयों में भी

कुरेदता हूँ फैले टूटे विश्वास के

दु:खजनित आसमान को ...

ज़िन्दगी के ज़हरीले बुरादे में दबे पड़े हैं

हमारे प्यार के मज़हब के अवशेष

अनगिनत अधजले ठूँठ

           -------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by vijay nikore on August 17, 2017 at 11:18am

सराहना के लिए हार्दिक आभार, आदरणीय नरेन्द्रसिंह जी। 

Comment by narendrasinh chauhan on August 16, 2017 at 7:27pm

बहोत खूब सुन्दर रचना 

Comment by vijay nikore on August 8, 2017 at 11:06pm

// क्या ख़ूब गहरे अहसासों का झरना बहा है । अच्छे नवीन बिम्बों-प्रतीकों का प्रयोग भी साफ दिखाई दे रहा है । //

आप जैसे सुधि पाठकों का साथ रहे, आश्रीवाद रहे।

रचना को मान देने के लिए आपका हृदयतल से आभार, आदरणीय भाई मोहम्मद जी।

Comment by Mohammed Arif on August 8, 2017 at 10:29am
आदरणीय विजय निकोर जी आदाब, क्या ख़ूब गहरे अहसासों का झरना बहा है । अच्छे नवीन बिम्बों-प्रतीकों का प्रयोग भी साफ दिखाई दे रहा है । भावों के साथ मज़हब को लेकर भी सकारात्मक सोच । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।

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