तुमसे मिलने की उदात्त प्रत्याशा ...
प्रेरणा के प्रहर थे
स्वत: मुस्कराने लगे
तुम्हारे आने का मौसम ही होगा
वरना वीरान हवाओं में
ध्वनित-प्रतिध्वनित न होते
यूँ वह गीत-आलाप सुरीले पुराने
उस अमुक अरुणोदय से पहले ही एक संग
हर फूल, कली, हर पत्ते का झूम-झूम गाना
हाथ-में-हाथ पकड़ खेलना, तुम्हें गुनगुनाना
और नवजात-सी उत्सुक पक्षिणियों का
सांवले पंख फैला
चोंच-मार खेलना, चहचहाना ...
स्नेहसिक्त
शायद इसी को कहते होंगे ...
कि अच्छा लगता था सभी कुछ परस्पर
हँसना, रोना ..या कभी मुझ पर तुम्हारा
कारण-आकारण छोटा-सा
प्यार का गुस्सा
और फिर अगले ही पल मेरे गले में वह
प्यार की बाहें, या दोनो हाथों से
मेरे गालों पर वह प्यार की चपत ...
और जो मैं कुछ बोलने को हूँ तो
मेरे ओंठों पर शरारत भरी अंगुली
मेरे ओंठ बंद कर देती थी तुम
स्नेहसिक्त
शायद इसी को ही कहते होंगे ...
----------
-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
सराहना के लिए हार्दिक आभार, आदरणीय नरेन्द्रसिंह जी।
इस बहतरीन प्रस्तुति पर दिल से ढेरों बधाई स्वीकार करें
//बहुत उम्दा और खूबसूरत रचना से आपने रूबरू कराया। //
सराहना के लिए हार्दिक आभार, आदरणीय सुरेन्द्र नाथ जी।
// बहुत ही बेहतरीन और भावपूर्ण कविता । इस कविता में आपके व्यक्तित्व का नया स्वरूप नज़र आ रहा है ।//
मेरा मनोबल बढ़ाने के लिए आपका हृदय तल से आभार, आदरणीय भाई मोहम्मद आरिफ़ जी।
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय मोहित जी
आदरणीय भाई समर जी, ओ बी ओ मंच की यही खूबी है कि अच्छे सुझाव देकर मित्र मार्गदर्शन करते हैं। मुझको भी कविता तवील लगी और मैं स्वयं अशांत था, जब तक इसको काट-छाँट कर पुन: पोस्ट नही क्या। लेखन में जबतक मेरा "सर्वोच्च" पन्ने पर न आए, मेरा मन भीतर ही भीतर गलता रहता है।सराहना के लिए और सच्चाई के लिए आभारी हूँ, आदरणी भाई, समर जी।
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