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इश्क़ की ज़ुबाँ....संतोष

इश्क़ की ज़ुबाँ को तूने किस क़दर आसां कर दिया,
कह न सका कभी, वो निगाहों से बयाँ कर दिया.

दिल में मुरझाये से अरमां थे मिरे,
निगाहों ने तिरे उन्हें फिर जवाँ कर दिया.

अब तो हवाओं में भी आती है ख़ुशबू तिरी,
बंजर था ये दिल मेरा,तूने गुलिस्ताँ कर दिया.

पाना था तुझे जो रुका भी नहीं मंज़िल तलक मैं,
चाहतों ने तिरे इस दुश्वार सफ़र को और आसां कर दिया.

फ़ैसला जब था मेरा तुम्हारा, तो फिर ये ऐतराज़ कैसा,
दुनियाँ वालों ने फिर क्यूँ जीना मेरा मुहाल कर दिया.

इश्क़ में ये कैसा इंतक़ाम है मुझसे तिरा,
रक्ख़ा ख़ुद को भी अकेला तूने,मुझे तनहा कर दिया.
#संतोष खिरवड़कर
[मौलिक एवं अप्रकाशित]

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Comment by santosh khirwadkar on August 4, 2017 at 7:41pm

आदरणीय समर साहब, प्रणाम सहित धन्यवाद एवं आभार ! 

Comment by santosh khirwadkar on August 4, 2017 at 7:38pm

आदरणीय नीलेश जी , आप को धन्यवाद एवं आभार ! अभी इस मंच पर प्रशिक्षु के रूप में नविन सदस्यता ग्रहण की है ! और आप के कहे मुताबिक मैं प्रयत्न भी कर रहा हूँ ! किन्तु निवेदन चाहूंगा कि कृपया रचना /कविता /ग़ज़ल में आप का मार्गदर्शन भी समय-समय पर मिलता रहे!

Comment by santosh khirwadkar on August 4, 2017 at 7:26pm

आदरणीय सुरेंद्र जी नमस्कार , आप का ह्रदय से धन्यवाद एवं आभार !

Comment by Samar kabeer on August 4, 2017 at 6:54pm
जनाब संतोष जी आदाब,भावपूर्ण रचना की बधाई स्वीकार करें ।
जनाब निलेश जी की बातों पर ध्यान दें ।
Comment by Nilesh Shevgaonkar on August 4, 2017 at 11:16am
आ संतोष दादा,
भावपूर्ण रचना के लिये बधाई।
मंच पर ग़ज़ल की कक्षा में ग़ज़ल के विधान और नियमों का विस्तार से उल्लेख है, आप पढ़कर लाभान्वित हो सकते हैं।
सादर
Comment by नाथ सोनांचली on August 4, 2017 at 4:39am
आद0 संतोष खिरवड़कर साहब आदाब, अच्छे अशआर कहे आप, शेष गुणीजन बताएंगे। मेरी बधाई लीजिये। सादर

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