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मैंने देखी आज रंगोली..

टी० वी० पर दूरदर्शन वाली

पहले भी देखा है कई बार

इसके अनेकों रूप कई प्रकार

कभी स्कूल के प्रांगण में सजी

कभी घर की देहली पर,

कभी दिवाली में तो कभी ब्याह–शादी में

रंग-बिरंगी, अनोखी-अलबेली

जब बनती तो अनोखा उत्साह होता

पहले धीरे-धीरे आकार लेती

उत्सुकता का कारण बनती

फिर अलग-अलग रंगों से

सजती-सँवरती, बनती-बिगड़ती

जब बन कर तैयार हो जाती

बच्चे खुश हो तालियाँ बजाते

युवा सेल्फी लेते सोशल मीडिया पर लगाते

बुजुर्ग देख-देख मुस्कुराते ...

समय बीतता, रंग धूमिल होते

आकार बिगड़ने लगता और अंततः,

कामवाली आती, झाड़ू लगाती

रंग महत्वहीन, रूप बेकार

बेचारी रंगोली गर्द का ढेर बन

पुनः धरती में मिल जाती..!

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by श्याम किशोर सिंह 'करीब' on August 4, 2017 at 8:34pm

सादर नमस्कार सर, हार्दिक धन्यवाद।

Comment by Samar kabeer on August 4, 2017 at 6:34pm
जनाब श्याम किशोर सिंह जी आदाब,अच्छी लगी आपकी कविता,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

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