आज कुछ यूँ हुआ कि ...
घोंसला टूटा गिरा था पेड़ के नीचे
एक नन्ही जान बैठी आँखें थी मींचे
उसकी माँ मुँह में दबाए थी कोई चारा
ढूँढती फिरती थीं नजरें आँख का तारा
हाथ मैंने जब बढाया मदद की खातिर
उसने समझा ये शिकारी है कोई शातिर
माँ हो चाहे जिसकी भी वो एक सी बनी
आज नन्हे पंछी की इंसान से ठनी
उसी टूटे नीड़ को रखा उठा फिर पेड़ पर
पंछी बनाते घोंसले इंसान तो बस घर..
सुबह आकर देखा तो हालात कल से थे
बारिश हुई थी और तिनके पेड़ के नीचे
ज़ब्त कर जज़्बात देखा डाल से ऊपर
बैठी थी वो माँ–बाप के संग कुछ टहनियों पर
माँ ने समझा आ गया फिर से शिकारी वो
करने लगी बाजीगरी मुझको डराने को..!
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
सर मेरा मतलब भी 'साथ' से ही है। वो नन्हीं चिड़िया पेड़ की टहनियों पर अपने माँ - बाप के संरक्षण में पहुँच चुकी थी और उनके साथ सही सलामत थी।
आदरणीय कबीर साहब, सादर नमन
यह कमेंट मैंने कल रात ही लिखा था किंतु न जाने वो कहाँ गुम हुआ, दिखाई नहीं दिया तो दोबारा लिख रहा हूँ -
प्रोत्साहन एवं मार्गदर्शन हेतु ह्रदय से आभार व्यक्त करता हूँ, आशा है भविष्य में भी लाभान्वित होता रहूँगा। प्रस्तुत रचना का अंत वैसा ही है जैसा की वास्तव में हुआ था, मैंने उसमें अलग से कुछ नहीं जोड़ा। ये घटना मेरे विद्यालय में घटित हुई थी जिसमें बुलबुल चिड़िया का बच्चा घोंसला समेत जमीन पर आ गिरा था। "बैठी थी वो माँ बाप के संग कुछ टहनियों पर" इसलिए लिखा क्योंकि वो आम का पेड़ था जिसकी एक पतली टहनी पर बच्चा और आस - पास की दो टहनियों पर माँ बाप बैठे थे।
आपने जिस सुधार (ज़ब्त कर जज़्बात) की सलाह दी थी वो मैंने कर लिया है।
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