मुझसे गाड़ी का इंतज़ार नहीं हो रहा था, किसी भी तरह जल्दी गंतव्य स्थान पर पहुँचना था । अभी नया-नया मंत्री पद संभाला था, सो मंत्री पद का शऊर कहाँ से आता ? ऊपर से समाज सेवा का भूत सर चढ़ का नाच रहा था | “पब्लिक की समस्याओं का निवारण करने के लिये, दिन हो या रात ? हमेशा तत्पर रहूंगी |” आज ही तो, ये शपथ ली थी | तभी दिमाग़ में कुछ कौंधा और मैं निकल पड़ी । सामने से जो बस आती दिखी, मैं बैठने को उतावली हो उठी । बिना कुछ देखे सुने ही, बस पर चढ़ गई । इंसानों से ठसाठस भरी बस थी। भीषण गरमी थी । लोग एक दूसरे पर लदे जा रहे थे। कई लोग छत की रॉड से लटके पट्टों को पकड़ें हुये खड़े थे । वो झूलते हुए कभी आगे हो जाते, तो कभी पीछे । मैंने सोचा थोड़ा आगे जाऊँ, शायद बैठने की जगह मिल जाए ? इस लिए थोड़ा झुक कर आगे बढ़ चली ।
ऊपर उठे बाज़ुओं से, अजीब-अजीब दुर्गन्ध आ रही थी, जिससे पूर्ण वातावरण दूषित था। किसी तरह झुक-झुका के आगे तक पहुँची | कहीं कोई बैठने की कोई जगह नज़र नहीं आई। अब लगा, ग़लती कर दी आगे आकर । लेकिन अब क्या फ़ायदा ? क्योंकि अब न और आगे जा सकती थी, न ही वापस पीछे लौट सकती थी । बीच में सेंडविच बनना मजबूरी थी ।
रॉड पर झूलते पट्टे को पकड़ने का प्रयास किया, लेकिन पकड़ नहीं सकी। हाइट कम होने का ख़ामियाज़ा, ऐसी जगह पर भुगतना पड़ता है । मैंने ख़ुद को समेट कर किसी तरह खड़ा किया । बस में जब भी ब्रेक लगती, मैं न चाहते हुए भी गिर पड़ती । लोग हँसने लगते । “मैडम, ज़रा सीधी खड़ी रहिये ।“ पीछे से एक ने फबती कसी। “अरे अरे ! देखते नहीं, बेचारी पट्टा भी नहीं पकड़ पा रही ? मैडम को गोद में बिठा लो ।” “आइये मैडम, हमारी गोद में बैठ जाइए। यहाँ बहुत जगह है ।“ पसर कर बैठा हुआ शख़्स बोला। कहाँ फँस गई इन खूँसटों के बीच में ? देख कर ही सब शैतान नज़र आ रहे थे ।
मन कर रहा था----“मुँह नोच लूं इन सबका, पर थी तो औरत जात ही ? मैंने भी कुछ न बोलने में ही भलाई समझी ।‘ पूरी बस में चालीस-पचास लोग तो थे ही, लेकिन ये सब आँखों वाले अंधे और कानों वाले बहरे ही थे। इन्हें न कुछ दिखाई दे रहा था, न सुनाई दे रहा था ।
तभी मेरे पीछे से एक नौजवान आगे आया, उसने अपने बग़ल में बैसाखी दाब रखी थी । ऊँगली दिखाते हुए बोला -------- “ आप यहाँ बैठ जाइए प्लीज़ ।“ मैंने मुड़ कर देखा, मेरे पीछे किनारे की एक सीट ख़ाली थी। शायद वो अपनी सीट मुझे दे रहा था। “नो थैंक यू , प्लीज़। आप बैठिए। वैसे भी मेरा स्टापेज आ गया, मुझे यहीं उतरना है ।“ थैंक यू वैरी मच” कहते हुये मै बस से उतर गयी | दिमाग में अभी भी वही सब कुछ चल रहा था........”शारीरिक विकलांगता, विकलांगता है ही नहीं | वो अपाहिज सा दिखने वाला इंसान, भले ही उसके हाथ में बैसाखी थी, वो मुझे पूर्ण रूप से स्वस्थ दिख रहा था |
अपाहिज तो वो हैं, जो मानसिक रूप से विकलांग हैं | समाज में सड़न की तरह फैलने वाली इस मानसिक अपंगता का ईलाज करना होगा ? और अगर जल्दी ही इसका ईलाज न किया गया तो, अपंगता रुपी ये बीमारी महामारी का रूप ले लेगी |” उसी रात मैंने प्रशासनिक अधिकारीयों को बुला कर उनके साथ एक अर्जेंट मीटिंग की और एक आर्डर पास किया...........“कि सभी पब्लिक ट्रांसपोर्ट में सी.सी.टी.वी लगाये जायेंगे | जिसका कंट्रोल पुलिस हेडक्वाटर से रहेगा | आरोपियों अतार्थ ( मानसिक रूप से अपंग रोगियों ) को रंगे हाथ पकड़ने की धरपकड़ शुरू हो गयी है |
मौलिक व अप्रकाशित
लेखिका
उमा विश्वकर्मा
मो. ९४१५४०११०५
Comment
गंभीर विषय को लेकर कथा का ताना बाना बुना है आपने ..हार्दिक बधाई आपको आदरणीया.. शिल्प में थोड़ी और कसावट से शानदार लघुकथा का रूप ले लेग आपकी ये रचना
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