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राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ४९

बहरे रमल मुसद्दस सालिम;

फ़ाएलातुन/ फ़ाएलातुन/फ़ाएलातुन;

2122/2122/2122)

.

झाँक कर वो देख ले अपनी ख़ुदी में

ऐब दिखता है जिसे हर आदमी में 

 

पास आकर दूरियों का अक्स देखा

ग़ैर जब होने लगा तू दोस्ती में

 

यूँ नहीं मरते हैं हम सादासिफ़त पे

रंग सातों मुन्शइब हैं सादगी में

 

इक पसेमंज़र-ए-ज़ुल्मत है ज़रूरी

यूँ नहीं दिखती हैं चीज़ें रौशनी में

 

आ तुझे भी इस्तिआरों से सवारूँ

लफ्ज़ के गौहर बनाकर शाइरी में 

 

रौशनी से किस तरह ख़ुद को बचाएँ

छटपटाहट सी मची है तीरगी में

 

दर्द को बाहोश हो तकतीअ कर लो

प्यार का तकसीम करना बेखुदी में

 

दीदनी जब इश्क़ की होगी हकीक़त

दर्द को पाओगे काबिज़ हर खुशी में

 

आसमां के पार से आता नहीं है

मौत का लम्हा छिपा है ज़िंदगी में

 

~राज़ नवादवी

 मौलिक और अप्रकाशित 

अक्स- चित्र, छाया, प्रतिबिम्ब; सादासिफ़त- बेदाग़ गुण या स्वभाव वाला; इस्तिआरों इस्तिआरा- रूपक; गौहर- मोती; तीरगी- अन्धकार; मानूस- परिचित;  तकतीअ- टुकड़े- टुकड़े करना; तकसीम- बाँटना, बँटवारा करना; दीदनी- देखने योग्य; काबिज़- किसी पे कब्ज़ा होना;

 

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Comment by राज़ नवादवी on August 19, 2017 at 6:17pm

जनाब बृजेश जी, आपका ह्रदय से आभार. सादर 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 18, 2017 at 10:47pm
बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल हुई ज़नाब राज साहब..हार्दिक बधाई
Comment by राज़ नवादवी on August 18, 2017 at 6:58pm

जनाब सुरेन्द्र नाथ जी, आपका दिल से एहतेराम, दरअसल बह्र-ओ-वज़न के फन को सीख रहा हूँ, जिसकी प्रेरणा और अहमियत का इल्म इसी मंच पर आके मिला. इसलिए इस मंच से जुड़े सभी सुधिजनों का भी मैं शुक्रगुज़ार हूँ, और उनसे मेरी गुजारिश होगी कि समय समय पर मार्गदर्शन करते रहें. सादर ! 

Comment by नाथ सोनांचली on August 18, 2017 at 6:41pm
जनाब राज नवादवी जी सादर अभिवादन, बहुत खूबसूरत ग़ज़ल, बहुत खूब। दाद के साथ मुबारकबाद क़बूलें। सादर

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