२१२२/२१२२/२१२२/२१२
बहरे रमल मुसम्मन महज़ूफ़:
फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन
क्या फ़सादात-ए-शिकस्ता प्यार से आगे लिखूँ
मुद्दआ है क्या दिल-ए-ग़मख़्वार से आगे लिखूँ
आरज़ूएं, दिल बिरिश्ता, ज़ख्म या हैरानियाँ
क्या लिखूं गर मैं विसाल-ए-यार से आगे लिखूं
दर्द टूटे फूल का तो बाग़वाँ ही जानता
सोज़िश-ए-गुल रौनक-ए-गुलज़ार से आगे लिखूँ
हक़ बयानी ऐ ज़माँ दे हौसला बातिल न हो
जो लिखूँ मैं ख़ारिजी इज़हार से आगे लिखूँ
कब हुई है इश्क़ की चाराग़री जुज़ इश्क़ से
है ज़रूरी मैं शिफ़ा तीमार से आगे लिखूँ
है सड़क पे सोने वालों का भी अपना आशियाँ
मै सिफ़त घर की दरोदीवार से आगे लिखूँ
है दुआ चहरा कभी अपनों का मुतसव्वर न हो
इस्म मैं जब नामज़द अग्यार से आगे लिखूँ
होश तुझको देखते ही जब हुए हैं फ़ाख्ता
हाल क्या अपना दम-ए-दीदार से आगे लिखूँ
ग़ालिबन तुझको समझ आये मआल-ए-आशिक़ी
मैं कहानी जब तिरे इनकार से आगे लिखूँ
लग रही हैं बोलियाँ बाज़ार में फिर क्यूँ नहीं
आदमी का मर्तबा बाज़ार से आगे लिखूं
है गिरफ्त-ए-आजिज़ी में ज़िंदगी हर शख्स की
सानिहा अब क्या वही हर बार से आगे लिखूं
~ राज़ नवादवी
फ़सादात-ए-शिकस्ता प्यार- भग्न प्रेम की ख़राबियाँ; दिल-ए-ग़मख़्वार- सहानुभूतिशील ह्रदय; बिरिश्ता- दग्ध; विसाल-ए-यार- प्रेम के आधेय से मिलन; सोज़िश-ए-गुल- पुष्प की पीड़ा; रौनक-ए-गुलज़ार- उपवन की रौनक; हक़बयानी- सत्यवाचन; ज़माँ- ज़माना; बातिल- झूठा; ख़ारिजी- बाहरी; शिफ़ा- इलाज; तीमार- देखभाल, सेवा सुश्रुषा; सिफ़त- परिभाषा, गुण, ख़ासियत; मुतसव्वर होना- (चेहरा) ध्यान में आना; इस्म- नाम; नामज़द- पहचान हुआ; अग्यार- दुश्मन लोग; दम-ए-दीदार- दर्शन की घड़ी या पल; ग़ालिबन- कदाचित्, शायद; मआल-ए-आशिक़ी- प्रेम करने का परिणाम; मर्तबा- पद, श्रेणी, प्रतिष्ठा; सानिहा- दुर्घटना, कोई बुरा समाचार
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय भंडारी साहब, मंतव्य का हार्दिक आभार. आप बिलकुल सही कह रहे हैं. मैंने वही किया था. एडिट आप्शन में जाकर ग़ज़ल में ज़रूरी सुधार भर कर दिया था. ऐसा करने के बाद अप्रूवल अवेटेड का मेसेज आ गया. और जब पोस्ट अप्रूव हुई तो पुराने जितने भी कमेंट्स थे ग़ायब दिखे. आप कोई और साधन हो तो कृपया ज़रूर बताएं. सादर.
आदरनीय राज भाई , सुधार के बाद गज़ल और खूब सूरत हो गयी हौ , बधाइयाँ स्वीकार करें । आपने शायद सुधार को एक नयी गज़ल के जैसे फिर से पोस्ट की है ... पिछली प्रतिक्रियाँ दिख नहीं रहीं है , गज़ल को एडिट आप्शन से सुधार कर देना चहिये , ताकि इस सीखने सिखाने के मंच का उद्देश्य पूरा हो सके ,,, जान कारों की प्रतिक्रियायें बहुत कुछ सीख देतीं हैं .. उनका रहना भी ज़रूरी है ।
आदरणीय ajay sharma साहब, आपका ह्रदय से आभार !
आपको इस ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई |
आदरणीया सुनंदा जी, आपका तहेदिल से शुक्रिया, आपको ग़ज़ल पसंद आई, मेरा लिखना सार्थक हुआ. सादर आभार के साथ.
आदरणीया कल्पना जी, बहुत बहुत धन्यवाद. सच बात तो ये है कि मैं ग़ज़लगोई अभी सीख ही रहा हूँ और शायद आने वाले समय में इसकी नौईयत कुछ और हो. अभी मेरी सारी कोशिश ग़ज़ल की बह्र को interiorize करने की है और इसमें अब तक सीखी गई भाषा जैसे जैसे ज़ुबान पे आती है, उसको रक़म करता जाता हूँ. आपकी बातें बिलकुल बजा हैं और एक लिहाज़ से सामयिक भी. हाँ, लफ़्ज़ों की अपनी ख़ूबसूरती भी होती है, ठीक वैसे ही जैसे लिबासों की या बेलबूटों की, मगर जो दरूनी है, जो मानी, या जो शख्सियत है, अहलियत आखिकार उसी की होती है. मेरी ये भी कोशिश है कि शेर में तरकीब-ओ-तपाक पैदा किये जाएँ. कोशिश जारी है. आपके विचारों का आभारी हूँ. सादर.
फिर भी गर आसान भाषा में लिखें तो अच्छा रहेगा , शायद आप ज्यादातर शब्द फारसी या अरबिक लिख रहें है | क्या इतनी क्लिष्ट भाषा आज भी हिन्दुस्तानी ग़ज़ल में हैं ? उत्सुकतावश पूछ रहीं हूँ उम्मीद है अन्यथा न लेंगे आप | सादर |
आदरणीया कल्पना जी, आपने ग़ज़ल की सराहना कर मेरा लिखना सार्थक किया है. मैं आपका ह्रदय से आभारी हूँ. सादर.
आदरणीय समर कबीर साहब, बहुत बहुत शुक्रिया. आपके सटीक मार्गदर्शन और दोस्तों के मशविरों का कमाल है. हर बार लिखने के बाद लगता है कि अभी बहुत कमी बाकी है और अशआर में तरक़ीब पैदा करने की ज़रुरत. इंशाअल्लाह उम्मीद है आपलोगों की दुआओं से आगे फ़रोग होता रहेगा. मुझे आपका मेसेज मिल गया था. अबसे चैट बॉक्स की बजाए फ़ोन पर ज़हमत दूंगा. सादर
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