बहरे रमल मुसद्दस सालिम;
फ़ाएलातुन/ फ़ाएलातुन/फ़ाएलातुन;
2122/2122/2122)
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झाँक कर वो देख ले अपनी ख़ुदी में
ऐब दिखता है जिसे हर आदमी में
पास आकर दूरियों का अक्स देखा
ग़ैर जब होने लगा तू दोस्ती में
यूँ नहीं मरते हैं हम सादासिफ़त पे
रंग सातों मुन्शइब हैं सादगी में
इक पसेमंज़र-ए-ज़ुल्मत है ज़रूरी
यूँ नहीं दिखती हैं चीज़ें रौशनी में
आ तुझे भी इस्तिआरों से सवारूँ
लफ्ज़ के गौहर बनाकर शाइरी में
रौशनी से किस तरह ख़ुद को बचाएँ
छटपटाहट सी मची है तीरगी में
दर्द को बाहोश हो तकतीअ कर लो
प्यार का तकसीम करना बेखुदी में
दीदनी जब इश्क़ की होगी हकीक़त
दर्द को पाओगे काबिज़ हर खुशी में
आसमां के पार से आता नहीं है
मौत का लम्हा छिपा है ज़िंदगी में
~राज़ नवादवी
मौलिक और अप्रकाशित
अक्स- चित्र, छाया, प्रतिबिम्ब; सादासिफ़त- बेदाग़ गुण या स्वभाव वाला; इस्तिआरों इस्तिआरा- रूपक; गौहर- मोती; तीरगी- अन्धकार; मानूस- परिचित; तकतीअ- टुकड़े- टुकड़े करना; तकसीम- बाँटना, बँटवारा करना; दीदनी- देखने योग्य; काबिज़- किसी पे कब्ज़ा होना;
Comment
आदरणीय रवि शुक्ला साहेब, आपका ह्रदय से आभार. आपकी दाद दिल से कुबूल करता हूँ. लर्निंग mode में हूँ और आप सबों की शुभकामनाओं से सीखने की दिशा में आवश्यक कदम उठाता रहूँगा. सादर.
आदरणीय समर साहेब, आपका ह्रदय से आभार. आपके मार्गदर्शन एवं इस्लाह में बहुत कुछ सीखने का मौक़ा मिलेगा, इसकी मुझे बेहद ख़ुशी है. आपने जो भी फरमाया है बिलकुल बजा फरमाया है. शिल्प और व्याकरण की अशुद्धियों को दूर करने का पूरा प्रयास करूंगा. जहां तक पसेमंज़र वाले शेर के रब्त की बात है, बात ये है कि इसे उस आध्यात्मिक विचार के हिसाब से लिखा गया है जिसके अनुसार सृष्टि अपने मूल रूप में अथवा ईश्वरीय रूप में तमस है, अर्थात् रजस अथवा सत्व नहीं, एवं मूल रूप से बाहर ही प्रकाशित है. अर्थात जो भी दृश्यमान अथवा संज्ञान या असंज्ञान में कल्पनीय है वो प्रकाश स्वरुप है और मूल तमिस्र की पृष्ठभूमि में ही गोचर है. सीधे सीधे शब्दों में कहा जाए तो अन्धकार अथवा तमिस्र ही मौलिक अवस्था या आधेय है एवं प्रकाश रचित विश्व है. अन्धकार स्वाभाविक रूप से व्याप्त है, प्रकाश लाना पड़ता है. और अन्धकार की पृष्ठभूमि में ही साकार विश्व ज्ञेय है.
तीरगी वाले शेर में कथ्य ये है कि तीरगी यह सोचती है कि हम खुद को रौशनी से किस तरह बचाएं, इस लिए बचाएं का प्रयोग किया. हाँ आपकी बात भी सही है कि तीरगी के लिए हम की जगह मैं का इस्तेमाल होने से बचाऊं शब्द का प्रयोग होना चाहिए. तकसीम वाले शेर में निश्चय ही व्याकरण की त्रुटि है. 'प्यार को तक़सीम करना बेख़ुदी में ही बेहतर और शुद्ध है. आपके मशविरे को दिल से क़ुबूल करते हुए भविष्य में और बेहतर करनी की हमारी कोशिश होगी. सादर.
आदरणीय राज नवादवी जी बहुत बढि़या गजल कही आपने आदरणीय समर साहब के मश्वरे के अनुसार अश्आर में और भी निखार आ गया है
यूँ नहीं मरते हैं हम सादासिफ़त पे
रंग सातों मुन्शइब हैं सादगी में
इक पसेमंज़र-ए-ज़ुल्मत है ज़रूरी
यूँ नहीं दिखती हैं चीज़ें रौशनी में कथ्य को देखें तो हमें ये दोनो शेर बहुत पसंद आए । पुन: बधाई । सादर
आदरणीय डॉ कँवर साहेब, आपका ह्रदय से आभार.
राज नवादवी जी दाद कबूल करें बढ़िया ग़ज़ल हुई है I
शुक्रिया जनाब धामी साहब, दिल से आभार!
मुहतरम जनाब आरिफ़ साहब, आपकी दाद दिल से कुबूल करता हूँ, हौसलाअफज़ाई का दिली शुक्रिया. सीनियर मेम्बरान से गुजारिश है ब नुकत-ए-अरूज इस्लाह का करम फरमाएं.
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