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हैं वफ़ा के निशान समझो ना (प्रेम को समर्पित एक ग़ज़ल "राज')

२१२२ १२१२  २२

खामशी की जबान समझो ना

अनकही दास्तान समझो ना

 

सामने हैं मेरी खुली बाहें

तुम इन्हें आस्तान समझो ना

 

ये गुजारिश सही मुहब्बत की

तुम खुदा की कमान समझो ना

 

स्याह काजल बहा जो आँखों से

हैं वफ़ा के निशान  समझो ना 

 

बस  गए हो मेरी इन आँखों में

इनमें  अपना जहान  समझो ना

 

झुक गया है तुम्हारे कदमों में

ये मेरा आसमान समझो ना

 

खींच लाती कोई कशिश हमको   

रब्त है दरमियान समझो ना  

आस्तान =भगवान् की मूरती तक पंहुचने का द्वार 

कमान=हुक्म /आदेश 

---मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Niraj Kumar on August 26, 2017 at 7:49pm

आदरणीय निलेश जी,

मेरी बात का मर्म सिर्फ इतना था कि आलोचक हो या शायर दोनों के लिए दिल-दिमाग दोनों जरूरी हैंं .

तरही को इस बार मैं वक्त नहीं दे पाऊंगा. ऊर्जा फिलहाल कुछ दूसरे ज़रूरी कामों में लग रही है. 

सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on August 26, 2017 at 5:44pm

श्रीमान नीरज जी,
पता नहीं आप किन रचनाकारों की बात कर रहे  हैं जो अपनी ही रचनाओं का मर्म नहीं समझते हैं.. खैर..मेरे साथ ऐसा कोई मसअला नहीं है और मेरा दिमाग भी अपनी जगह बिलकुल दुरुस्त है...इसीलिये मैं उर्दू ग़ज़ल के शेर में प्रयुक्त शब्द  के  संस्कृत मानी खोजने न  तो जाता हूँ और न ही ऐसा करने वालों की सराहना करता हूँ ..
शायर मो बेहतर शायर होने के लिए बेहतर दिमाग के अलावा बेहतर दिल की भी ज़रूरत होती है ..ये हम  शायरों का सीक्रेट है ..आलोचक और शायर में यही फर्क है ... आप नहीं समझेंगे ...
तरही आयोजन में ग़ज़लों पर आप की टिप्पणियों का इंतज़ार है ....
ऊर्जा वहाँ लगेगी तो शायद कई लोग लाभान्वित हों ..
सादर 

अस्तु 

Comment by Niraj Kumar on August 26, 2017 at 4:49pm

आदरणीय  निलेश जी,

संस्कृत में नक्काद के लिए जो शब्द है वो है सहृदय. एक हस्सास दिल आलोचक के लिए भी उतना ही जरूरी है जितना रचनाकार के लिए. वर्ना वो रचना के मर्म को समझ ही नहीं सकता. दूसरी तरफ शायर के लिए अगर बेहतर शायर होना है तो बेहतर दिमाग भी ज़रूरी है.मीर और ग़ालिब आपने वक़्त के बेहतरीन दिमाग भी थे. सिर्फ दीवानगी से काम नहीं चलता न शायरी में न आलोचना में न ज़िन्दगी में. 

सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on August 25, 2017 at 9:19pm

आ. नीरज जी,
आड़े तिरछे तरीक़े होते क्या हैं मुझे  तो  यह भी नहीं पता..
मित्र अमीर ईमाम का शेर आलोचकों की   नज़र ..
"
इस शाइरी में कुछ नहीं नुक्क़ाद के लिए 
दिलदार चाहिए कोई दीवाना चाहिए
.
उम्मीद है आप हम शाइरों की भावना समझेंगे  
सादर 

Comment by Niraj Kumar on August 25, 2017 at 8:35pm

आदरणीय निलेश जी,

शायरी की समझ होने के लिए शायर होना जरूरी नहीं है. मैं शायर नहीं हूँ .आलोचना में थोड़ी दखल जरूर है . फ़िलहाल उर्दू और हिंदी कविता के तुलनात्मक काव्यशास्त्रीय अध्ययन से संबधित शोध कार्य से संलग्न हूँ.

आपकी राय आपकी राय है उस पर मुझे कोई टिप्पणी नहीं करनी. क्योकि मुझे जो सिद्ध करना था कर चुका हूँ .

मै जो कहता हूँ सीधे और साफ़ कहता इसलिए आगे जब भी मुझसे कुछ कहना हो सीधे मुझसे कहे आड़े तिरछे तरीके मुझे पसंद नहीं और पर्दादारी का तो सवाल ही नहीं है . आप की तसल्ली के लिए फोटो अपलोड कर दी है.

सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 25, 2017 at 7:25pm

आद० निलेश भैया,ग़ज़ल पर आपकी विस्तृत प्रतिक्रिया पढ़कर अभिभूत हूँ आपने वो सब बातें स्पष्ट की हैं जो एक ग़ज़ल गो ही समझ सकता है इशारों में भाव व्यक्त किये जाते हैं सपाट बयानबाजी नहीं होती ग़ज़लों में 

एक शेर बड़े शायर का देखिये 

जबीं ओ आस्ताँ के दरमियाँ सजदे हों क्यूँ हाइल

जबीं को मयस्सर काश जज्ब-ए- आस्ताँ होना   

जज्ब-ए-आस्ताँ=मकबरे में दफन  यहाँ आस्ताँ को मकबरे के लिए प्रयोग किया गया है  -- एक ही शेर में आस्ताँ को दो तरह से प्रयोग किया गया है इसी तरह ढेरों उदाहरण हैं  

आपने सही कहा कि किसी को यदि किसी विधा का इतना ज्ञान है तो वो अपनी रचनाएँ पोस्ट करके हम जैसों को ज्ञान वर्धन भी तो करे |

खैर छोड़ो चर्चा को विराम मिल चुका है \

आपका पुनः दिल से आभार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 25, 2017 at 7:15pm

आद० महेंद्र कुमार जी ,ग़ज़ल पर आपकी शिरकत और चर्चा पर अपने विचार व्यक्त करने पर तहे दिल से शुक्रिया आपकी बातों से पूर्णतः सहमत हूँ ग़ज़ल के भाव तो वही समझ सकता है जो समझना चाहता हो | बस अधिक न कह कर इतना ही कहूँगी एक सच्चे पाठक का फ़र्ज़ निबाहते हुए जो आपने प्रतिक्रिया दी है उसके लिए बहुत बहुत शुक्रिया |

Comment by Nilesh Shevgaonkar on August 25, 2017 at 7:03pm

आ. राजेश दीदी..
बहुत उम्दा ग़ज़ल पेश की है आपने जिसके लिए आप को बधाई..
आस्तान शब्द पर बहुत चर्चा हुआ है..अत: मैं अधिक कहना नहीं चाहूँगा...
आपका शेर भरपूर है और समझने वाले समझ ही गए होंगे कि कोई शब्द कब, कहाँ क्या मतलब देते हैं..
घजल इशारों की भाषा में    कही जाती है ...कही गयी है ..ये आनन्द तो गूँगे   का गुड है ...
गूँगा चख़ ले और आनंदित हो ले..किसी को कहने/ बताने की कोई ज़रूरत ही नहीं है ..
एक मुहावरा है.... जवानी  की दहलीज़ पर क़दम रखना..... तो क्या वहाँ सचमुच दहलीज़ होती है ..या एक  काल्पनिक भाव है ..
कई ग़ज़लों में दिल के कमरे और दरवाज़ों का ज़िक्र आता है तो क्या पाठक मेडिकली सिद्ध करने बैठेंगे  कि दिल में दरवाज़े नहीं वाल्व होते हैं ...कमरे नहीं आलिन्द और निलय होते हैं...
जो पाठक अभिव्यक्ति के गुड को महसूस न कर सके..उनसे कैसी बहस.. वो चाहे शेर क्या  पूरे सृजन को  निरर्थक कह दें... उनकी मर्ज़ी है...
वैसे मेरा स्पष्ट मानना   है कि यदि व्यक्ति को किसी विधा का इतना ज्ञान है तो मंच पर सबसे पहले उसे अपनी प्रतिनिधि रचनाएँ पोस्ट करनी चाहिये तभी पता चलेगा कि अगला समुन्दर का तैराक है या बाथ टब का... लेकिन मुश्किल ये है कि जब कोई फ़र्ज़ी id बनाता है तो उससे अपनी रचनाएँ पोस्ट नहीं कर पाता है..क्यूँ कि वो उस फ़र्ज़ी नाम की भेंट चढ़ जाती हैं.
सम्मानित सदस्यों (यदि असली हैं तो) कम से कम अपनी प्रोफाइल पिक. लगायें और प्रोफाइल अपडेट करें...
ग़ालिब के मिसरे का ज़िक्र  आया था... एक मिसरा मुझे भी याद आया...
कुछ तो है ....जिस की पर्दादारी है 
सादर 

Comment by Mahendra Kumar on August 24, 2017 at 11:02pm

आ. राजेश मैम, बहुत ही अच्छी ग़ज़ल हुई है जिस हेतु मेरी तरफ़ से हार्दिक बधाई प्रेषित है. आपकी ग़ज़ल पर काफी विस्तृत और सार्थक चर्चा हुई है जिसके लिए भी आप बधाई की हक़दार हैं. हालाँकि मेरा मानना है कि किसी एक शब्द को लेकर इतना दूर निकलने की आवश्यकता नहीं थी ख़ासकर तब जब लेखिका ने पहले ही इस बात का उल्लेख कर दिया है कि उसने "आस्तान" का प्रयोग किस अर्थ में किया है. मेरी अल्प समझ के अनुसार किसी शब्द का अर्थ जानने के हमारे पास दो ही रास्ते हैं, पहला यह कि उसके अर्थ को किसी प्रामाणिक पुस्तक (जैसे शब्दकोष) में देखा जाए और दूसरा यह कि उसका प्रयोग सामान्य जन ने किस रूप में किया है अथवा कर रहे हैं या करते आये हैं. इन दोनों के अतिरिक्त एक तीसरा मार्ग भी है और वह यह है कि उस शब्द का प्रयोग प्रयोगकर्ता ने किस अर्थ में किया है. यदि हम ध्यान दें तो आ. समर सर ने अपनी टिप्पणी में इस ओर साफ़ इशारा किया है और मैं भी उनसे पूरी तरह इत्तेफ़ाक रखता हूँ. यदि कोई ग़ज़लकार चाहे तो वह किसी शब्द को एक नए अर्थ में भी प्रयोग कर सकता है. बस उसे करना यह चाहिए कि ये बात उसे वहीं पर स्पष्ट कर देनी चाहिए ताकि भ्रम की स्थिति (उसके पूर्व प्रचलित अर्थ को ले कर) न बनी रहे. चूँकि आ. राजेश मैम ने यह बात शुरू से ही स्पष्ट कर दी है इसलिए मुझे नहीं लगता कि अब इस पर और चर्चा की आवश्यकता है. सादर.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 24, 2017 at 7:08pm

आद० रवि भैया आप सही कह रहे हैं उस वक़्त कहीं जाने की जल्दी में थी सो गलत लिख बैठी इन +आँखों में ही है अलिफ़ वस्ल ,ध्यान आकर्षित करने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया |

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