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मंज़रे ख़्वाब से निकल जायें
अब हक़ीकत से ही बहल जायें
ज़ख़्म को खोद कुछ बड़ा कीजे
ता कि कुछ कैमरे दहल जायें
तख़्त की सीढ़ियाँ नई हैं अब
कोई कह दे उन्हें, सँभल जायें
मेरे अन्दर का बच्चा कहता है
चल न झूठे सही, फिसल जायें
शह’र की भीड़ भाड़ से बचते
आ ! किसी गाँव तक निकल जायें
दूर है गर समर ज़रा तुमसे
थोड़ा पंजों के बल उछल जायें
चाहत ए रोशनी में दम है अगर
जुगनुओं की तरह से जल जायें
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरनीय समर भाई , ग़ज़ल की सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ।
'मेरे अन्दर का बच्चा कहता है
चल न झूटे सही,फिसल जायें' -- इस शेर मे मैने यह कहने की कोशिश की है -
'मेरे अन्दर का बच्चा कहता है -- इसका अर्थ मैने ऐसे निकाला -- अर्थात , आज मै बच्चा नहीं हूँ , चाहे जवान हूँ या बूढ़ा -- लेकिन मेरे अन्दर अभी बच्चा ज़िन्दा है - और वही सानी की बात कह रहा है , कि , चल अपना बचपना याद करें और झूठे ही सही फिसल जायें -- ( छिपा सच है, कि जवानी मे सँभल के चलने की हिदायत आम दी जाती है ) जिससे ऊब कर अन्दर का बच्चा ये कह रहा है । आशा है मै अपनी बात समझा पाया हूँ ।
आदरणीय नीरज भाई , गज़ल की सराहना और एक शेर पसंद करने के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ।
आदरणीय गिरिराज जी,
उम्दा ग़ज़ल हुई है. दाद के साथ मुबारकबाद.
तख़्त की सीढ़ियाँ नई हैं अब
कोई कह दे उन्हें, सँभल जायें
यह शेर इशारों में बात कहने का एक नमूना है.
सादर
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