अँधियारे गद्दी पर बैठा,
सूरज सन्यास लिए फिरता
नैतिकता सच्चाई हमने,
टाँगी कोने में खूँटी पर.
लगा रहे हैं आग घरों में,
जाति धर्म के प्रेत घूमकर.
सत्ता की गलियों में जाकर,
खेल रही खो-खो अस्थिरता.
तृष्णाओं की नदी बह रही,
बाँध नहीं कोई बन पाया.
वैभव के सूरज के सँग सँग,
दूर हो रहा अपना साया.
रोज नए शिखरों को छू लें,
स्वप्न रहा आँखों में तिरता.
प्रेम और सद्भाव रूठकर,
चले गए हैं लम्बी छुट्टी.
साथ गुजारा जिसके बचपन,
उस मस्ती ने कर ली कुट्टी.
बिन पानी का बादल छत पर,
सुबह शाम बस रहता घिरता.
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आभार आदरणीय फूल सिंह जी आपका , सादर
बेहतरीन
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी, आपकी सदाशयता को साधुवाद, हो जाता है कभी कभी ऐसा, यूँ ही स्नेह बनाये रखें सादर.
अतिशय आभार आपका आदरणीय गिरिराज भंडारी जी, इसी तरह स्नेह बनाये रखें सादर
आदरनीय बसंत भाई , वर्तमान परिस्थितियों पर खूब सूरत नवगीत रचना हुई है , हार्दिक बधाइयाँ ।
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी आपका दिल से शुक्रिया , शायद गलती से आपने इसे गजल लिख दिया है, यह नवगीत है , सादर
आदरणीय बृजेश कुमार 'ब्रज' जी आपका दिल से शुक्रिया
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