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घरोंदों को जलाया है किसी ने दोस्ती करके
चिरागों को बुझाया है किसी ने दोस्ती करके
सुकूं था जिसके जीवन में जिसे आती थी मीठी नींद
उसे शब् भर जगाया है किसी ने दोस्ती करके
जो दुश्मन था जमाने से जो प्यासा था लहू का ही
उसी को अब बचाया है किसी ने दोस्ती करके
अँधेरे में मेरा साया हुआ कुछ इस तरह से गुम
ज्यूँ रिश्ता हर भुलाया है किसी ने दोस्ती करके
फकीरों की तरह जीता, था खुश तन्हाई से अपनी
मगर तिल तिल मिटाया है किसी ने दोस्ती करके
तेरे पहलू में आया हूँ लगा साकी गले मुझको
बड़ा ही जुल्म ढाया है किसी ने दोस्ती करके
जमीं के एक टुकड़े को खड़ी सेनायें सरहद पर
लहू हरदम बहाया है किसी ने दोस्ती करके
थी हर उम्मीद जब टूटी न दुनिया रास आई थी
तभी आशू हंसाया है किसी ने दोस्ती करके
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
हार्दिक बधाई आदरणीय डॉ आशुतोष जी।बेहतरीन गज़ल।
बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है आदरणीय आशुतोष मिश्रा जी,,
तेरे पहलू में आया हूँ लगा साकी गले मुझको
बड़ा ही जुल्म ढाया है किसी ने दोस्ती करके
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