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जैसे धुल कर आईना फ़िर चमकीला हो जाता है,
रो लेता हूँ, रो लेने से मन हल्का हो जाता है.
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मुश्किल से इक सोच बराबर की दूरी है दोनों में,
लेकिन ख़ुद से मिले हुए को इक अरसा हो जाता है.
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फोकस पास का हो तो मंज़र दूर का साफ़ नहीं रहता,
मंजिल दुनिया रहती है तो रब धुँधला हो जाता है.
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मन्दिर मस्जिद गुरुद्वारे में कोई काम नहीं मेरा
अना कुचल लेता हूँ अपनी तो सजदा हो जाता है.
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ख़ुद की जानिब क़दम बढ़ाये जाता हूँ मैं सदियों से,
कभी सफ़र में फ़ानी दुनिया में रुकना हो जाता है.
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यादों के नन्हे छौने जब चरते हैं माज़ी की दूब
पीछे पीछे फिरता ये मन चरवाहा हो जाता है.
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हरदम लड़ता रहता है हर बात पे मुझ से मेरा दिल
और मेरे पीछे हटते ही समझौता हो जाता है.
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जब वो गले लगाता है तो रूह महकती है मेरी,
बारिश की पहली बूँदों से घर सौंधा हो जाता है.
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“नूर” वली से लगते हो जब मैख़ाने के होते हो
लेकिन दुनिया के होते ही सच झूठा हो जाता है..
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निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
एक बेहतरीन ग़ज़ल... विस्तृत टिप्पणी के लिए दुबारा आऊँगी .
शुक्रिया आ. रामबली गुप्ता जी
आ. नीरज जी,
आपकी टिप्पणी न शिल्प पर थी न कथ्य पर... आप ये बता रहे थे कि आपको क्या पसंद है...और क्या नापसंद.
आपके ही अंतिम वाक्य को माना जाय तो आप जान गए होंगे कि मैं प्रशंसा का भूखा नहीं हूँ.... मंतव्य समझता हूँ...इसलिए मुझे मीठे और कडवे का फर्क समझ आता है अत: मधुमेह भी नहीं है ...
अमीर भाई को आपने रेख्ता में सुना ....मुझे तो लगता है कि वो शेर उन्होंने आप को ही समर्पित किया होगा.
अब आलोचक और श्रोता कहाँ जायं ये मेरी समस्या नहीं है... ये उन्हें तय करना है कि कहाँ जायं क्या करें .. लेकिन अपनी राय थोपने और अपने हिसाब से मोल्ड करने का प्रयत्न न करें ..और अगर फिर भी यही करना है तो इसी ट्रीटमेंट के लिए तैयार रहें ...
देश में अगर शाइरों की कमी नहीं है तो बिना बात चीखने और छाती पीटने वालों की भी कमी नहीं है...
और हाँ... ये ब्लॉग मेरा है... मैं आपकी पोस्ट पर टिप्पणी करने नहीं आया हूँ... मुझे कोई सिखाएगा तो ज़रूर सीखूंगा / सीखता आया हूँ ...लेकिन कोई अपनी पसंद थोपेगा तो मेरे पास उसका कमेन्ट ब्लाक करने का आप्शन भी है ...
हम लोगों को ग़ज़ल भी कहनी होती है ....
आशा है आप कम से कम मेरे समय का सम्मान करेंगे
सादर
आदरणीय निलेश जी,
\\एक बीमारी का इलाज एक ही दवाई से किया जाता है \\
दिक्कत ये है कि आपने जिसे दवा समझ रखा है वह अपने आप में बीमारी है
मधुमेह के रोगी को मिठाई से बहुत प्यार होता है .
\\आगे भी यही शेर आपको कई बार पढ़ने को मिल सकता है\\
ये शेर मैंने पहली बार अमीर इमाम को जश्ने रेख्ता के मुशायरे में पढ़ते हुए सुना था. इस शेर में आलोचना से डर और प्रशंसा की भूख साफ़ जाहिर है. आप शौक से हज़ार बार कोट कीजिये !
\\आपके साथ समस्या यह है कि आप ख़ुद शाइरी नहीं करते और अनुचित शब्दों के साथ अपनी सलाह थोपते हैं।\\
सारे लोग शायर ही हो जायेंगे तो पाठक श्रोता और आलोचक कहाँ से आयेंगे. वैसे भी शायरो की संख्या अपने देश में कम नहीं.साहित्यिक मर्यादा से गिरा हुआ कोई शब्द जहां तक मुझसे मुमकिन हो मैं इस्तेमाल नहीं करता. अपनी राय रखने के लिए सब स्वतन्त्र हैं और उसे मानने न मानने के लिए भी सब स्वतन्त्र है. थोपने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता .
\\आइन्दा टिप्पणी शिल्प पर करेंगे\\
किसी भी रचना का वास्तविक मूल्यांकन शिल्प और कथ्य दोनों के मूल्यांकन के बगैर मुमकिन नहीं है. सिर्फ बह्र के दोष या शुतुर्गुर्बा जैसे दोषों की निशानदेही करना ही ग़ज़ल का वास्तविक मूल्यांकन नहीं है यद्यपि कि ये भी आवश्यक है. और यह तय करना कि पाठक शिल्प पर टिप्पणी करे या कथ्य पर रचनाकर के अधिकार क्षेत्र से बाहर की चीज है.
\\न कि यह जताएंगे कि आप को नाश्ते, खाने में क्या पसन्द है, क्या नहीं। यहाँ इच्छा भोज की कोई व्यवस्था नहीं की गई है।\\
मुझे किसी के निजी डायनिंग टेबल पर क्या है इसमें कोई दिलचस्पी नहीं. लेकिन रचना एक बार प्रकाशित होने के बाद सामाजिक वास्तु हो जाती है. प्रकाशन के बाद रचनाकार से स्वतन्त्र उसका एक अपना अस्तित्व होता है और उसमे क्या पसंद है या नापसंद इस पर प्रतिक्रिया देना पाठक के अधिकार क्षेत्र की बात हो जाती है. अगर किसी रचनाकार को अपनी रचना पर कोई भी नापसंदगी पसंद नहीं तो बेहतर है वो खुद लिखे, खुद पढ़े और मस्त रहे!
मुझे ये नहीं लगता कि आपने इस तरह की टिप्पणी क्यों की है क्योंकि मैंने तो इस ग़ज़ल की खुल कर प्रशंसा की थी. लेकिन आपकी हर बात से हर कोई सहमत हो ये जरूरी तो नहीं?
सादर
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