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ग़ज़ल - वक़्त कुछ ऐसा मेरे साथ गुज़ारा उसने

बह्र : 2122-1122-1122-112/22

फिर मुहब्बत से लिया नाम तुम्हारा उसने
वार मुझ पर है किया कितना करारा उसने

मेरी कश्ती को समन्दर में उतारा उसने
और फिर कर दिया तूफ़ाँ को इशारा उसने

डूबते वक़्त दी आवाज़ बहुत मैंने मगर
बैठ कर दूर से देखा था नज़ारा उसने

आप कहते थे इसे बख़्श दो, देखो ख़ुद ही
मुझ में ख़ंजर ये उतारा है दुबारा उसने

ग़ैर भी कोई गुज़ारे न किसी ग़ैर के साथ 

वक़्त कुछ ऐसा मेरे साथ गुज़ारा उसने

मेरी तस्वीर पे तस्वीर बना कर ख़ुद की
अक्स अपना मेरे अन्दर से उभारा उसने

दाँव पर ख़ुद को लगा बैठा मुहब्बत में वो
अब तलक जो भी था जीता हुआ हारा उसने

आप के कहने पे बख़्शा था उसे, लो देखो
मुझ में ख़ंजर ये उतारा है दुबारा उसने

जला कर राख़ मैं कर दूँगा क़सम से ख़ुद को 

मेरे अन्दर से जो अब मुझको पुकारा उसने

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Mahendra Kumar on September 28, 2017 at 4:48pm
हार्दिक आभार आ. शिज्जु सर। सादर धन्यवाद।
Comment by Mahendra Kumar on September 28, 2017 at 4:46pm
शुक्रिया सर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on September 28, 2017 at 11:22am

आदरणीय महेंद्र कुमार जी अच्छी ग़ज़ल कही है आपने मा. निलेश भाई की  इस्लाह से और निखर गई है मेरी तरफ से सादर बधाई

Comment by Samar kabeer on September 28, 2017 at 10:31am
क्षमा मांगने की क्या बात है,आपने कोई ग़लती नहीं की है, सबका अपना अपना मिज़ाज होता है,इसे अन्यथा न लें ।
Comment by Mahendra Kumar on September 28, 2017 at 8:04am

ऐसा कह के आपने शर्मिंदा कर दिया सर. खैर, यदि कोई गलती हो गयी हो तो उसे क्षमा कीजिएगा. सादर. 

Comment by Samar kabeer on September 27, 2017 at 9:15pm
आपके मिज़ाज को जहाँ तक मैंने समझा है,आप किसी का भी सुझाया गया मिसरा लेना पसंद नहीं करते हैं,इसलिये बहतर यही है कि जो मिसरा आपको उचित लगे उसी को रखिये ।
वैसे 'मुआफ़' और 'बख़्श'शब्द में ज़ियादा फ़र्क़ नहीं है ।
Comment by Mahendra Kumar on September 27, 2017 at 8:43pm

आ. निलेश सर, अपना कीमती वक़्त दे कर मेरे प्रश्न का उत्तर देने के लिए मैं आपका हृदय से आभारी हूँ. मूल बात फ्लो अथवा रवानी की ही है. अभी मैं एकदम नया हूँ इसलिए इतनी बारीक़ बातें नहीं समझ पाता. आपके सुझाव अनुसार मैंने आख़िरी शेर के ऊला मिसरे को इस तरह कहने की कोशिश की है : "जला कर राख़ मैं कर दूँगा क़सम से ख़ुद को". शायद अब ठीक हो. देख लीजिएगा. एक बार ग़ज़ल में पुनः आपकी उपस्थति के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद. सादर.

Comment by Mahendra Kumar on September 27, 2017 at 8:35pm

आ. समर सर, "बख़्श" शब्द पर मैंने भी सोचा था पर मुझे लगता है कि जो बात "मुआफ़" शब्द में है वो इस "बख़्श" शब्द में नहीं है. सानी मिसरे और इस ग़ज़ल के मिज़ाज को देखते हुए मैं इस शब्द को लेकर असमंजस में हूँ हालाँकि काफी हद तक वही भाव आ रहे हैं. फिर भी, मैं यह आपके ऊपर छोड़ता हूँ कि इस शेर में कौन सा ऊला मिसरा रखा जाए :

1. आप कहते थे इसे बख़्श दो, देखो ख़ुद ही

2. आप के कहने पे बख़्शा था उसे, लो देखो

3. बात इक बार की होती तो न होता कुछ भी 

आपके कीमती सुझाव और ग़ज़ल पर पुनः समय देने के लिए हृदय से आभारी हूँ. बहुत-बहुत धन्यवाद सर. सादर.

Comment by Mahendra Kumar on September 27, 2017 at 8:20pm

ग़ज़ल को पसन्द करने के लिए आपका हृदय से आभारी हूँ आ. गिरिराज सर. बहुत-बहुत धन्यवाद. सादर.

Comment by Mahendra Kumar on September 27, 2017 at 8:19pm

ग़ज़ल पर उपस्थति हो कर उसका मान बढ़ाने और मेरी हौसला अफ़ज़ाई के लिए आपका हृदय से आभारी हूँ आ. रवि सर. बहुत-बहुत धन्यवाद. सादर.

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