बहरे रमल मुसम्मिन मख़बून महजूफ़ मक़तूअ--
2122 1122 1122 22
एक चेह्रे पे कई चेह्रे लगा रक्खे हैं
इस ज़माने से कई राज़ छुपा रक्खे हैं
अश्क आँखों में लिये और हँसी चेह्रे पर
दर्द हमने कई सीने में दबा रक्खे हैं
टूट जाएँ न कहीँ अश्क जमीं पर गिरकर
अपनी पलकों पे करीने से सजा रक्खे हैं
इस ज़माने को कभी ख्वाब मेरे रास आएँ
सोचकर अपनी इन आँखों में बसा रक्खे हैं
दे न पाएगा ज़माना कभी जिनके उत्तर
दिल ही दिल में वो सवालात दबा रक्खे हैं
पार होगा ये सफीना मेरा कैसे मौला
जिंदगी ने कई तूफान उठा रक्खे हैं
जिंदगी लौट के फिर आ कभी अपने घर पर
हमने चौखट पे कई दीप जला रक्खे हैं
---- मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आद० नरेन्द्र सिंह जी ,आपका बहुत बहुत शुक्रिया |
जनाब सलीम राजा साहब ,आपको ग़ज़ल पसंद आई दिल से बहुत बहुत शुक्रिया |
KHUB SUNDAR RACHNA
मोहतरम जनाब तस्दीक अहमद जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई सुखन नवाजी को बेहद शुक्रिया .मेरा लिखना सार्थक हुआ .
आद० बासुदेव अग्रवाल जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई सुखन नवाजी को बेहद शुक्रिया .मेरा लिखना सार्थक हुआ .
आद० समर भाई जी आदाब ,आपको ग़ज़ल पसंद आई सुखन नवाजी को बेहद शुक्रिया .मेरा लिखना सार्थक हुआ .
आद० सुरेन्द्र नाथ भैया ,आपको ग़ज़ल पसंद आई सुखन नवाजी को बेहद शुक्रिया .
आद० मोहम्मद आरिफ जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई सुखन नवाजी को बेहद शुक्रिया .
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