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याद आ जाती है फिर उलझी कहानी आपकी

2122 2122 2122 212
जब कभी भी देखता हूँ वो निशानी आपकी ।
याद आ जाती है फिर उलझी कहानी आपकी ।।

आज मुद्दत बाद ढूढा जब किताबों में बहुत ।
मिल गयी तस्वीर मुझको वह पुरानी आपकी।।

बेसबब इनकार कर देना मुहब्बत को मेरे ।
कर गई घायल मुझे वो सच बयानी आपकी ।।

याद है वह शेर मुझको जो लिखा था इश्क़ में ।।
फिर ग़ज़ल होती गई पूरी जवानी आपकी ।।

इक शरारत हो गई थी जब मेरे जज़्बात से ।
हो गईं आँखें हया से पानी पानी आपकी ।।

कुछ अना से कुछ नफ़ासत में हुआ जुल्मो सितम ।
आदतें जाती कहाँ हैं खानदानी आपकी ।।

हुस्न पर इतनी तिज़ारत आपकी अच्छी नहीं ।
आपके लहजे में देखा बदजुबानी आपकी ।।

चन्द लम्हे ही सही दिल का सुकूँ जिंदा हुआ ।
कर लिया मैंने कभी जब मेजबानी आपकी ।।

चाँद आएगा जमीं पर सोचते ही रह गए ।।
ख्वाहिशों में खो गईं रातें सुहानी आपकी ।।

वक्त शायद दे गया कुछ तज्रिबा भी आपको ।
अब शिकन माथे की लगती है सयानी आपकी ।।

ये हवाएं कर रहीं मदहोश मुझको बेहिसाब
आ रहीं हैं खुशबुएँ फिर जाफ़रानी आपकी ।।

हाल पूछा मुस्कुरा कर आपने जब से मेरा ।
मिट गईं तन्हाईयाँ सब मेहरबानी आपकी ।।

नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Samar kabeer on October 24, 2017 at 8:54pm
'चन्द लम्हे ही सही दिल का सुकूँ ज़िंदा हुआ
कर लिया मैंने कभी जब मेज़बानी आपकी'
इस शैर में शिल्प बहुत कमज़ोर है, और व्याकरण दोष भी है,'मेज़बानी',शब्द स्त्रीलिंग है, इस शैर को यूँ किया जा सकता है:-
'चन्द ही लम्हे सही,दिल को सुकूँ हासिल हुआ
एक शब जब मैंने की थी मेज़बानी आपकी'
'ये हवाएं कर रहीं मदहोश मुझको बेहिसाब
आ रही हैं खुशबुएँ फिर जाफ़रानी आपकी'
इस शैर के ऊला मिसरे में ऐब-ए-तनाफ़ुर है'कर रहीं'इसे 'कर गईं'कर लें,और इसका सानी मिसरा यूँ कर लें:-
'आ रही हैं लेके ख़ुशबू जाफ़रानी आपकी'

'मिट गईं तन्हाईयाँ सब मेहरबानी आपकी'
इस मिसरे में 'मेहरबानी'का वज़्न 2222हो रहा है जबकि इसका सही वज़्न है 2122इसे "मह्रबानी" कर लें ।
पहले भी आपसे निवेदन कर चुका हूँ कि सभी रचनाओं पर अपनी प्रतिक्रया देना आपका अख़लाक़ी फ़र्ज़ है, इस पर ध्यान दीजिये, बाक़ी शुभ शुभ ।
Comment by जयनित कुमार मेहता on October 24, 2017 at 7:36pm
मेरी जिज्ञासा शांत करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद आपका, आदरणीय समर कबीर जी।
Comment by Naveen Mani Tripathi on October 24, 2017 at 7:34pm
अवश्य सर मैं प्रतीक्षारत हूँ ।
Comment by Samar kabeer on October 24, 2017 at 7:25pm
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

'बेसबब इंकार कर देना मुहब्बत को मेरे'
इस मिसरे को यूँ होना चाहिए:-
'बेसबब इंकार कर देना महब्बत से मेरी'(महब्बत,स्त्रीलिंग है न(

'इक शरारत हो गई थी जब मेरे जज़्बात से'
इस मुसरे को यूँ होना चाहिए:-
'इक शरारत हो गई थी मुझसे जब जज़्बात में'

'आपके लहजे में देखा बदज़ुबानी आपकी'
इस मिसरे को यूँ करें :-
'आपके लहजे में देखी बदज़ुबानी आपकी'(बद ज़ुबानी-स्त्रीलिंग)
नमाज़ का वक़्त आ गया,बाक़ी अशआर पर पुनः आता हूँ ।
जनाब जयनित जी का ऐतिराज़ ख़ारिज है ।
Comment by Naveen Mani Tripathi on October 24, 2017 at 5:33pm
जयनित जी कबीर साहब की इस्लाह की प्रतीक्षा करें ।
Comment by जयनित कुमार मेहता on October 24, 2017 at 12:49pm
उम्दा ग़ज़ल हुई है आदरणीय नवीन जी।
आखिरी शेर को लेकर एक प्रश्न उठ रहा है मेरे मन में-

"हाल पूछा मुस्कुरा कर आपने जब से मेरा ।
मिट गईं तन्हाईयाँ सब मेहरबानी आपकी ।।"

सानी को देखते हुए क्या उला मिसरे में 'से' का प्रयोग अनुचित नहीं है?

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