कुछ तो नया मिल जाए, अपना कुछ रूप-रंग बदल जाये, किसी तरह तो पागल-दीवानों को संतुष्ट किया जाये। इसी सोच के साथ वे सब आज फिर इंतज़ार में थीं, किसी नये अवतार में ढलने के लिए। एक-दूसरे के हालात का जायज़ा लेते हुए उनके बीच विचार विमर्श चल रहा था।
"इन लोगों को तो बस भाषण देना या राग अलापना आता है, बस!"
"करते वही हैं, जो फ़ैशन में है और जो विज्ञापनों में दिखाया, सिखाया जाता है!"
समूह में से दो क़लमों के संवाद सुनकर तीसरी ने कहा -"देशी तन में हमें विदेशी तकनीक के चोले पहनने पड़ते हैं। नई तकनीक की राह देखनी होती है, तब कहीं हम पर इन ग्राहकों की कृपा होती है!"
इस बात पर सबसे पीछे वाली क़लम ने कहा- "मुझे तो कोई पूछता तक नहीं! देशी कम्पनियां विदेशियों की मुरीद हो चुकी हैं या उनके हाथों बिक चुकी हैं! कितनी वैरायटी मौजूद है क़लमों की!"
"सच कहा तुमने! दो रुपए से लेकर बड़ी क़ीमत तक की क़लमें! हद हो गई! बच्चे, बड़े सभी बावले हो गये हैं!" चौथी क़लम पास वाली क़लम को ईर्ष्या से देखते हुए बोली - "स्टेशनरी वालों का क्या कसूर, जब ग्राहक को ही विदेशी तकनीकों की लत लग गई है!"
"वफ़ादार तो दो रुपए वाली क़लम भी होती है, पर भारतीयों को कौन समझाए!" एक दुबली पतली सी क़लम ने अपना पोइंट दिखाते हुए अपना पक्ष रखा।
"लेकिन अधिकतर देशी कम्पनियां और ग्राहक तो विदेशियों के डाले हुए तकनीकी दानों को चुगते हैं न!" पहली क़लम ने बाकियों को निहारते हुए कहा- "हमारी हालत तो स्त्री या वैश्या जैसी कर दी गई है। नित नये रूप में ग्राहकों के सामने मौजूद रहो, यूज़ एंड थ्रो करते हैं हमें, बस!"
"सच कहा तुमने, क़लम बनाने वाली कम्पनियां हों, या ग्राहक; शिक्षक हों या साहित्यकार; अधिकतर बिकाऊ हैं, टिकाऊ नहीं... और उनके प्रति वफादार होते हुए भी उनके ही हाथों हम भी!" एक क़लम ने कुछ उग्र हो कर दर्द बयान किया।
यह सुनकर सभी क़लमें एक बार फिर अपने आकार-प्रकार का आत्मावलोकन करने लगीं।
(मौलिक व अप्रकाशित)
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