2122 2122 2122 212
चांद का टुकड़ा है या कोई परी या हूर है
उसके चहरे पे चमकता हर घड़ी इक नूर है
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हुस्न पर तो नाज़ उसको ख़ूब था पहले से ही
आइने को देख कर वो और भी मग़रूर है
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हार कर रुकना नहीं मंज़िल भले ही दूर हो
ठोकरें खाकर सम्हलना वक़्त का दस्तूर है
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हौसले के सामने तक़दीर भी झुक जायेगी
तू बदल सकता है क़िस्मत किसलिए मजबूर है
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आदमी की चाह हो तो खिलते है पत्थर में फूल
कौन सी मंज़िल भला इस आदमी से दूर है
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ख़ाक का है पुतला इंसाँ ख़ाक में मिल जाएगा
कैसी दौलत कैसी शुहरत क्यों भला मग़रूर है
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वक़्त से पहले किसी को कुछ नहीं मिलता कभी
वक़्त के हाथो यहाँ हर एक शय मजबूर है
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उसकि मर्ज़ी के बिना हिलता नहीं पत्ता कोई
उसका हर एक फैसला हमको रज़ा मंज़ूर है
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"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
जनाब अफ़रोज़ साहिब ,
ग़ज़ल पे आपकी महब्बत के लिए शुक्रिया ,
आप सही कह रहे हैं ,,,,,,,,वहां है टाइप नहीं हो पाया , आप का शुक्रिया।
'' ख़ाक का पुतला है इंसाँ ख़ाक में मिल जाएगा ''
उम्दा ग़ज़ल .दिली मुबारकबाद !!
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