बह्र - फाइलातुन मफाइलुन फैलुन
काबिले गौर मेरा काम न था
सर पे मेरे तभी ईनाम न था।
मैं जिसे पढ़ गया धड़ल्ले से,
वाकई वो मेरा कलाम न था।
हाट में मोल भाव क्या करता,
जेब में नोट क्या छदाम न था।
लोग मुँहफट उसे समझते थे,
जबकि वो शख्स बेलगाम न था।
गाँव के गाँव बाढ़ से उजड़े
बाढ़ का कोई इन्तजाम न था।
सर झुकाया नहीं कभी उसने,
वो शहंशाह था गुलाम् न था।
उसका मालिक तो बस खुदा ही था,
घर में जिनके दवा का दाम न था।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदर्णीय महेन्द्र कुमार जी ग़ज़ल पसन्दगी के लिये बहुत बहुत शुक्रिया।
आदर्णीय समर कबीर साहब जी उचित मार्गदर्शन के लिये सादर आभार।
आदर्णीय ब्रजेश कुमार ब्रज साहब ग़ज़ल पसन्दगी के लिये बहुत बहुत शुक्रिया।
आदर्णीय कालीपाद प्रसाद जी ग़ज़ल सराहना के लिये सादर आभार
आदर्णीय सुरेन्द्र नाथ सिंह जी ग़ज़ल सराहना के लिये सादर आभार
आदर्णीय अफरोज सर आपका बहुत बहुत शुक्रिया।
आदरणीय राम अवध जी, खूबसूरत ग़ज़ल हुई है. 'छदाम' हिदी में पुलिंग ही होता है.सादर.
आ. राम अवध विश्वकर्मा जी, आपकी ग़ज़ल बहुत अच्छी लगी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. गुणीजनों का संज्ञान लें. सादर.
'सर पे मेरे तभी इनआम न था'
यूँ किया जा सकता है ।
जनाब राम अवध जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
गुणीजनों की बातों का संज्ञान लें ।
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