पीठ के नीचे ..
बेघरों के
घर भी हुआ करते हैं
वहां सोते हैं
जहां शज़र हुआ करते हैं
पीठ के नीचे
अक्सर
पत्थर हुआ करते हैं
ज़िंदगी के रेंगते सफ़र हुआ करते हैं
बेघरों के भी
घर हुआ करते हैं
भोर
मजदूरी का पैग़ाम लाती हैं
मिल जाती है मजदूरी
तो पेट आराम पाता है
वरना रोज की तरह
एक व्रत और हो जाता है
बहला फुसला के
पेट को मनाते हैं
तारों को गिनते हैं
ख़्वाबों में सो जाते हैं
मज़दूर हैं
लोगों के घर बनाते हैं
अपने घरों से महरूम रह जाते हैं
बिना दीवारों के भी तो
घर हुआ करते हैं
सच
हम बेघरों के तो ऐसे ही
घर हुआ करते हैं
सर पे शजर तो
पीठ के नीचे पत्थर
हुआ करते हैं
सुशील सरना
पीठ के नीचे ..
बेघरों के
घर भी हुआ करते हैं
वहां सोते हैं
जहां शज़र हुआ करते हैं
पीठ के नीचे
अक्सर
पत्थर हुआ करते हैं
ज़िंदगी के रेंगते सफ़र हुआ करते हैं
बेघरों के भी
घर हुआ करते हैं
भोर
मजदूरी का पैग़ाम लाती हैं
मिल जाती है
तो पेट आराम पाता है
वरना रोज की तरह
एक व्रत और हो जाता है
बहला फुसला के
पेट को मनाते हैं
तार्रों को गिनते हैं
ख़्वाबों में सो जाते हैं
मज़दूर हैं
लोगों के घर बनाते हैं
अपने घरों से महरूम रह जाते हैं
बिना दीवारों के भी तो
घर हुआ करते हैं
सच
हम बेघरों के तो ऐसे ही
घर हुआ करते हैं
सर पे शजर तो
पीठ के नीचे पत्थर
हुआ करते हैं
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरनीय महेन्द्र कुमार जी सृजन आपकी आत्मीय प्रशंसा का हार्दिक आभारी है। इंगित टंकण त्रुटियां मैनें संशोधित कर दी हैं। इस हेतु आपका हार्दिक आभार।
आदरणीय समर कबीर साहिब, आदाब ... प्रस्तुति को अपनी स्नेहाशीष से मान देने का दिल से आभार। आपके द्वारा इंगित टंकण त्रुटियां मैंने दूर कर दी हैं। इस हेतु आपका दिल से आभार।
आदरणीय मो.आरिफ साहिब, आदाब . सृजन के भावों को आत्मीय मान देने का दिल से आभार
उम्दा कविता है आ. सुशील सरना जी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए.
1. भोर
मजदूरी का पैग़ाम लाती है
(जो मजदूरी) मिल जाती है
तो पेट आराम पाता है
2. तारों को गिनते हैं
सादर.
जनाब सुशील सरना जी आदाब,बहुत उम्दा मार्मिक कविता लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
कुछ टंकण त्रुटियाँ हैं,देख लें ।
आदरणीय सुशील सरना जी आदाब,
बेघरों के प्रति गहरी संवेदना व्यक्त करती कविता । सच है, बेघरों के भी घर होते है मगर बिना छत के, बिना दीवारों के और ऐसे घरों की प्रवृत्ति घुमक्कड़ होती है । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
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