-बस जरा बर्त्तन पटक देती हूँ,वे समझ जाते हैं।
-कि तू गुस्से में है?
-और क्या?
-तू भी न।
-तू भी क्या री?रातभर जगाते हैं।बर्त्तन मेरे,सुबह मेरी।
-पर मेरा काम तो इस तरह पटकने-झटकने से नहीं चलता है न।
-क्यूँ?
-वो सुन नहीं सकते री।
-तो फिर?
-क्या करूँ,मुझे तो बेलन ही भाँजना पड़ता है।
-धत्त तेरी!
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
बहुत बहुत आभार आदरणीय।
आद0 मनन कुमार सिंह जी सादर अभिवादन।। बढ़िया कटाक्ष किया आपने। गुस्से का यह रूप। हार्दिक बधाई स्वीकारें इस प्रस्तुति पर।
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